जगदेव प्रसाद का जन्म 2 फरवरी 1922 को महात्मा बुद्ध की ज्ञान-स्थली बोध गया के समीप कुर्था प्रखंड के कुरहारी ग्राम में अत्यंत निर्धन परिवार में हुआ था। इनके पिता प्रयाग नारायण कुशवाहा पास के प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे तथा माता रासकली अनपढ़ थी। अपने पिता के मार्गदर्शन में बालक जगदेव ने मिडिल की परीक्षा पास की। उनकी इच्छा उच्च शिक्षा ग्रहण करने की थी, वे हाईस्कूल के लिए जहानाबाद चले गए। निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा होने के कारण बाबू जगदेव प्रसाद की प्रवृत्ति शुरू से ही संघर्षशील तथा जुझारू रही, वे बचपन से ही ‘विद्रोही स्वाभाव’ के थे। जगदेव प्रसाद जब किशोरावस्था में अच्छे कपडे पहनकर स्कूल जाते तो उच्चवर्ण के छात्र उनका उपहास उड़ाते थे। एक दिन गुस्से में आकर उन्होंने उनकी पिटाई कर दी और उनकी आँखों में धूल डाल दी, इसके लिए उनके पिता को जुर्माना भरना पड़ा और माफ़ी भी मांगनी पडी- उनके साथ स्कूल में बदसूलकी भी हुई। एक दिन बिना किसी गलती के एक शिक्षक ने जगदेव बाबू को चांटा जड़ दिया, कुछ दिनों बाद वही शिक्षक कक्षा में पढ़ाते-पढाते खर्राटे भरने लगे, जगदेव जी ने उसके गाल पर एक जोरदार चांटा मारा। शिक्षक ने प्रधानाचार्य से शिकायत की। जगदेव बाबू ने निडर भाव से कहा, ‘गलती के लिए सबको बराबर सजा मिलनी चाहिए, चाहे वो छात्र हो या शिक्षक’। किशोर जगदेव प्रसाद ने पंचकठिया प्रथा का अंत करवाया। उस इलाके में किसानों की जमीन की फसल का पांच कट्ठा जमींदारों के हाथियों को चारा देने की एक प्रथा सी बन गयी थी। गरीब तथा शोषित वर्ग का किसान जमीदार की इस जबरदस्ती का विरोध नहीं कर पाता था। जगदेव बाबू ने इसका विरोध करने को ठाना। जगदेव बाबू ने अपने हमजोली साथियों से मिलकर रणनीति बनायी। जब महावत हाथी को लेकर फसल चराने आया तो पहले उसे मना किया गया, जब महावत नहीं माना तब जगदेव बाबू ने अपने साथियों के साथ महावत की पिटाई कर दी और आगे से न आने की चेतावनी भी दी। इस घटना के बाद पंचकठिया प्रथा बंद हो गयी।
जब वे शिक्षा हेतु घर से बाहर रह रहे थे, उनके पिता अस्वस्थ रहने लगे। जगदेव बाबू की माँ धार्मिक स्वाभाव की थी, अपने पति की सेहत के लिए उन्होंने देवी-देवताओं की खूब पूजा, अर्चना की तथा मन्नते मांगी, इन सबके बावजूद उनके पिता का देहावसान हो गया। यहीं से जगदेव बाबू के मन में हिन्दू धर्म के प्रति विद्रोही भावना पैदा हो गयी, उन्होंने घर के सारे देवी-देवताओं की मूर्तियों, तस्वीरों को उठाकर पिता की अर्थी पर डाल दिया। इस ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म से जो विक्षोभ उत्पन्न हुआ वो अंत समय तक रहा, उन्होंने ब्राह्मणवाद का प्रतिकार मानववाद के सिद्धांत के जरिये किया।
जगदेव बाबू ने तमाम घरेलू झंझावतों के बीच उच्च शिक्षा हासिल की। पटना विश्वविद्यालय से स्नातक तथा परास्नातक उत्तीर्ण हुए। वही उनका परिचय चंद्रदेव प्रसाद वर्मा से हुआ, चंद्रदेव वर्मा ने जगदेव बाबू को विभिन्न विचारकों को पढने, जानने-सुनने के लिए प्रेरित किया, अब जगदेव बाबू ने सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना शुरू किया और राजनीति की तरफ प्रेरित हुए। इसी बीच वे ‘सोशलिस्ट पार्टी’ से जुड़ गए और पार्टी के मुखपत्र ‘जनता’ का संपादन भी किया। एक संजीदा पत्रकार की हैसियत से उन्होंने दलित-पिछड़ों-शोषितों की समस्याओं के बारे में खूब लिखा तथा उनके समाधान के बारे में अपनी कलम चलायी। 1955 में हैदराबाद जाकर इंगलिश वीकली ‘सिटीजन’ तथा हिन्दी साप्ताहिक ‘उदय’ का संपादन आरभ किया। उनके क्रांतिकारी तथा ओजस्वी विचारों से पत्र-पत्रिकाओं का सर्कुलेशन लाखों की संख्या में पहुँच गया। उन्हें धमकियों का भी सामना करना पड़ा, प्रकाशक से भी मन-मुटाव हुआ, लेकिन जगदेव बाबू ने अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया। वे संपादक पद से त्यागपत्र देकर पटना वापस लौट आये।
बिहार में उस समय समाजवादी आन्दोलन की बयार थी, लेकिन जे. पी. तथा लोहिया के बीच सैद्धांतिक मतभेद था। जब जे. पी. ने राम मनोहर लोहिया का साथ छोड़ दिया तब बिहार में जगदेव बाबू ने लोहिया का साथ दिया, उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी के संगठनात्मक ढांचे को मजबूत किया और समाजवादी विचारधारा का देशीकरण करके इसको घर-घर पहुंचा दिया। जे. पी. मुख्यधारा की राजनीति से हटकर विनोबा भावे द्वारा संचालित भूदान आन्दोलन में शामिल हो गए। जे. पी. नाखून कटाकर क्रांतिकारी बने, वे हमेशा अगड़ी जातियों के समाजवादियों के हित-साधक रहे। भूदान आन्दोलन में जमींदारों का ह्रदय परिवर्तन कराकर जो जमीन प्राप्त की गयी वह पूर्णतया ऊसर और बंजर थी, उसे गरीब-गुरुबों में बाँट दिया गया था, लोगो ने खून-पसीना एक करके उसे खेती लायक बनाया। लोगों में खुशी का संचार हुआ लेकिन भू-सामंतो ने जमीन का फिर से कब्जा लेना शुरू कर दिया, और दलित-पिछड़ों की खूब मार-काट की गयी। तब कर्पूरी ठाकुर ने विनोबा भावे की खुलकर आलोचना की और ‘हवाई महात्मा’ कहा।
जगदेव बाबू ने 1967 के विधानसभा चुनाव में संसोपा (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, 1966 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी का एकीकरण हुआ था) के उम्मीदवार के रूप में कुर्था में जोरदार जीत दर्ज की। उनके अथक प्रयासों से स्वतंत्र बिहार के इतिहास में पहली बार संविद सरकार बनी तथा महामाया प्रसाद सिन्हा को मुख्यमंत्री बनाया गया। जगदेव बाबू तथा कर्पूरी ठाकुर की सूझ-बूझ से पहली गैर-कांग्रेस सरकार का गठन हुआ, लेकिन पार्टी की नीतियों तथा विचारधारा के मसले पर लोहिया से अनबन हुई और *‘कमाए धोती वाला और खाए टोपी वाला‘* की स्थिति देखकर संसोपा छोड़कर 25 अगस्त 1967 को ‘शोषित दल’ नाम से नयी पार्टी बनाई। बिहार में राजनीति को जनवादी बनाने के लिए उन्होंने सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति की आवश्यकता महसूस की। वे मानववादी रामस्वरूप वर्मा द्वारा स्थापित ‘अर्जक संघ’ (स्थापना 1 जून, 1968) में शामिल हुए। जगदेव बाबू ने कहा था कि अर्जक संघ के सिद्धांतो के द्वारा ही ब्राह्मणवाद को ख़त्म किया जा सकता है और सांस्कृतिक परिवर्तन कर मानववाद स्थापित किया जा सकता है। उन्होंने आचार, विचार, व्यवहार और संस्कार को अर्जक विधि से मनाने पर बल दिया। उस समय ये नारा गली-गली गूंजता था-
मानववाद की क्या पहचान- ब्रह्मण भंगी एक सामान,
पुनर्जन्म और भाग्यवाद- इनसे जन्मा ब्राह्मणवाद।
7 अगस्त 1972 को शोषित दल तथा रामस्वरूप वर्मा की पार्टी ‘समाज दल’ का एकीकरण हुआ और ‘शोषित समाज दल’ नामक नयी पार्टी का गठन किया गया। एक दार्शनिक तथा एक क्रांतिकारी के संगम से पार्टी में नयी उर्जा का संचार हुआ। जगदेव बाबू ने पार्टी के राष्ट्रीय महामंत्री के रूप में जगह-जगह तूफानी दौरा आरम्भ किया। वे नए-नए तथा जनवादी नारे गढ़ने में निपुण थे। सभाओं में जगदेव बाबू के भाषण बहुत ही प्रभावशाली होते थे, जहानाबाद की सभा में उन्होंने कहा था-
दस का शासन नब्बे पर, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा।
सौ में नब्बे शोषित है, नब्बे भाग हमारा है।
धन-धरती और राजपाट में,नब्बे भाग हमारा है।
जगदेव बाबू ने अपने भाषणों से शोषित समाज में नवचेतना का संचार किया, उन्होंने राजनीतिक विचारक टी. एच. ग्रीन के इस कथन को चरितार्थ कर दिखाया कि चेतना से स्वतंत्रता का उदय होता है, स्वतंत्रता मिलने पर अधिकार की मांग उठती है और राज्य को मजबूर किया जाता है कि वे उचित अधिकारों को प्रदान करे।
बिहार की जनता अब इन्हें ‘बिहार के लेनिन’ के नाम से बुलाने लगी। इसी समय बिहार में कांग्रेस की तानाशाही सरकार के खिलाफ जे. पी. के नेतृत्व में विशाल छात्र आन्दोलन शुरू हुआ और राजनीति की एक नयी दिशा-दशा का सूत्रपात हुआ, लेकिन आन्दोलन का नेतृत्व प्रभुवर्ग के अंग्रेजीदा लोगों के हाथ में था, जगदेव बाबू ने छात्र आन्दोलन के इस स्वरुप को स्वीकृति नहीं दी। इससे दो कदम आगे बढ़कर वे इसे जन-आन्दोलन का रूप देने के लिए मई 1974 को 6 सूत्री मांगो को लेकर पूरे बिहार में जन सभाएं की तथा सरकार पर भी दबाव डाला , लेकिन भ्रष्ट प्रशासन तथा ब्राह्मणवादी सरकार पर इसका कोई असर नहीं पड़ा, जिससे 5 सितम्बर 1974 से राज्य-व्यापी सत्याग्रह शुरू करने की योजना बनी। 5 सितम्बर 1974 को जगदेव बाबू हजारों की संख्या में शोषित समाज का नेतृत्व करते हुए अपने दल का काला झंडा लेकर आगे बढ़ने लगे। कुर्था में तैनात डी. एस. पी. ने सत्याग्रहियों को रोका तो जगदेव बाबू ने इसका प्रतिवाद किया और विरोधियों के पूर्वनियोजित जाल में फंस गए। पुलिस ने उनके ऊपर गोली चला दी। गोली सीधे उनके गर्दन में जा लगी, वे गिर पड़े। सत्याग्रहियों ने उनका बचाव किया, किन्तु क्रूर पुलिस घायलावस्था में उन्हें पुलिस स्टेशन ले गयी। पुलिस प्रशासन ने उनके मृत शरीर को गायब करना चाहा, लेकिन भारी जन-दबाव के चलते उनके शव को 6 सितम्बर को पटना लाया गया, उनकी अंतिम शवयात्रा में देश के कोने-कोने से लाखो-लाखों लोग पहुंचे।
जगदेव बाबू पर बहुत कम लिखा गया है उनके संपादन में निकलने वाले पत्र-पत्रिकाओं को सहेजा नहीं गया है जिससे जगदेव बाबू का व्यापक व्यक्तित्व जनमानस के सामने नहीं आ पाया है। प्रसिद्ध भाषाशास्त्री डा. राजेन्द्र प्रसाद सिंह और शशिकला द्वारा सम्पादित ‘जगदेव प्रसाद’ वांग्मय में प्राथमिक स्रोत- वक्तव्यों, भाषणों और उनके साक्षात्कारों का संकलन किया गया है।