किसी भी महापुरुष की पहचान उनके द्वारा किये गए कार्यो से होती है। 26 जून 1874 के दिन शुद्र वर्ण की कुर्मी (पाटीदार) जाति में जन्मे बहुजन एवं श्रमण संस्कृति के छत्रपति शाहू जी महाराज ने जाति व्यवस्था और इस पर आधारित भेदभाव को ध्वस्त करने के जोतीराव और सावित्रीबाई फुले के सपनों को साकार में अपना जीवन लगा दिया। दस वर्ष के शाहू को सन् 1884 में राजगद्दी का उत्तराधिकारी घोषित किया गया और जब वे २० वर्ष के हुए तो उनका राजतिलक 1894 में हुआ। शाहू जी महाराज 2 जुलाई 1894 में कोल्हापुर रियासत के राजा बने।
राजकोट (गुजरात) के राजकुमार विद्यालय में प्रारंभिक शिक्षा लेने के बाद शाहूजी ने आगे की पढ़ाई अपने ही रजवाड़े में ही एक अंग्रेज शिक्षक ‘स्टुअर्ट मिटफर्ड फ्रेजरट’ से ली थी। अंग्रेजी शिक्षक और अंग्रजी शिक्षा का प्रभाव के चलते उनमे एक वैज्ञानिक सोच का निर्माण हो चुका था। जिसकी वजह से उन्होंने कभी पोंगापंथी पुरानी प्रथा, परम्परा अथवा काल्पनिक बातों को महत्त्व नहीं दिया।
राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, विज्ञान और भाषाओं का शाहूजी ने गहन अध्ययन किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने अन्य महत्व पूर्ण किताबें भी पढ़ी जिसमें महात्मा फुले के मित्र नारायण महादेव परमानंद जो मामा परमानंद के नाम से जाने जाते थे। उनकी पुस्तक ‘लैटर्स टू एन इंडियन राजा’ पढ़ी जिसका गहरा प्रभाव शाहूजी पर पड़ा। शाहू जी की शिक्षा विदेश में हुई तथा जून 1902 में उन्हें कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से एल.एल.डी. की मानद उपाधि प्राप्त हुई जिसे पानेवाले वो पहले भारतीय थे. इसके अतिरिक्त उन्हें जी.सी.एस.आई., जी.सी.वी.ओ., एम्.आर.इ.एस. की उपाधियाँ भी मिलीं.
शाहूजी स्वयं जातिव्यवस्था के सताए हुए थे। अक्टूबर 1902 का किस्सा है जब शाहू जी पंचगंगा नदी में स्नान करने गये थे तो उनका स्नान संस्कार करने के लिए राजपुरोहित पंडा नहाये बगैर ही और पौराणिक मंत्र पढने लगा। शाहू जी के साथ आये विद्वानों ने पण्डे की इस चेष्टा का जब विरोध किया तो पण्डे ने जवाब दिया की शाहूजी शूद्र हैं। इसीलिए पंडो को शुद्ध हो कर स्नान क्रिया कराने की जरूरत नहीं और किसी शुद्र के स्नान संस्कार के लिए वेद मंत्रों का उच्चारण नहीं किया जा सकता। वाद विवाद होने पर शाहू जी के राजपुरोहित पण्डे ने वैदिक मंत्रों के आधार पर शाहू जी और उनके परिवार के सदस्यों का स्नान संस्कार सपन्न कराने से इंकार कर दिया। जातिव्यवस्था का यह दर्दनाक शूल उनके मन मस्तिष्क में चुभ गया।
ऐसा ही एक प्रसंग आया था जब शाहूजी महाराज को ब्राह्मणों के रसोईघर में जाने से रोका गया महज इसीलिए की वे शुद्र राजा थे। शाहूजी ने देखा की रसोई घर में बिल्लियां बेरोक टोक घूम फिर सकती थी मगर एक शुद्र राजा होने के बावजूद रसोई घर में नहीं जा सकता था। उन्होंने सोचा अगर एक राजा के साथ यह पण्डे ऐसा अपमानजनक व्यवहार कर सकते है तो सामान्य जनता की क्या स्थिति होगी। बस यहीं से शुरू होती है अमानवीय जातिव्यवस्था विरुध्ध उनकी जंग उन्होंने ब्राह्मणों के जातिगत अहंकार के विरूद्ध मोर्चा खोल दिया। उनके कार्यो से ही हमें पता चलता है की उन्होंने राज्य और समाज पर ब्राह्मणों के वर्चस्व को तोड़ने की शुरूआत कर दी थी। वो बहुत ही विचारशील एवं संवेदनशील महाराजा थे। उन्होंने सामाजिक क्रांति के पथ पर चलते हुए जो कार्य किये वो इस प्रकार हैं।
सन् 1901 शाहूजी महाराज ने अपनी रियासत कोल्हापुर स्टेट की जनगणना करवाई और इस जनगणना अनुसार कोल्हापुर स्टेट में 103889 अछूत लोग थे। इस रिपोर्ट में न केवल अछूतों दयनीय दशा बल्की अन्य पिछड़ो (ओबीसी) की कैफियत पर भी प्रकाश डाला गया। इसी जनगणना रिपोर्ट के आधार पर उन्होंने 26 जुलाई 1902 को एक अध्यादेश दिया की कोल्हापुर रियासत की शिक्षा तथा सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गो के लिए 50% आरक्षण दिया जायेगा। इसलिए उन्हें आरक्षण का जनक कहा जाता है।
सन 1894 में, जब शाहू महाराज ने राज्य की बागडोर संभाली थी, उस समय कोल्हापुर के सामान्य प्रशासन में कुल 71 पदों में से 60 पर ब्राह्मण अधिकारी नियुक्त थे। इसी प्रकार लिपिक के 500 पदों में से मात्र 10 पर गैर-ब्राह्मण थे। शाहू जी महाराज द्वारा पिछड़ी जातियों को 50 प्रतिशत आरक्षण उपलब्ध कराने के कारण 1912 में 95 पदों में से ब्राह्मण अधिकारियों की संख्या अब 35 रह गई थी। ज्योतिबाफुले के 85% विरुद्ध 15% की विचारधारा का अनुसरण करते हुए उन्होंने भी अनुभव किया की शिक्षा के प्रचार प्रसार के बगैर सामाजिक परिवर्तन निरर्थक है। इसीलिए शाहूजी महाराज ने पिछड़े वर्ग के लोगो को आधुनिक शिक्षा उपलब्ध हो उसके लिए भरसक प्रयास किये।
1912 में ही उन्होंने प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य कर दिया था। शाहूजी के भरसक प्रयासों के बावजूद जब शिक्षा के प्रचार प्रसार के कार्य में गति नहीं दिखाई दी तो उन्होंने 1913 में एक अध्यादेश निकाला और जिसमे पारित किया की 500 से 1000 तक की जनसंख्या वाले प्रत्येक गांव में स्कूल खोला जायगा और इसके लिए सरकारी खजाने से एक लाख रूपया अनुदान देने की घोषणा की। ज्योतिबा-सावित्रीबाई के स्त्री-शिक्षा के सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने लड़कियों की शिक्षा पर विशेष जोर दिया।
भारत के इतिहास में वो पहले राजा थे, जिन्होंने 25 जुलाई 1917 को प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य और निःशुल्क बना दिया। उन्होंने 1920 में नि:शुल्क छात्रावास खुलवाया। इस छात्रावास का नाम ‘प्रिंस शिवाजी मराठा फ्री बोर्डिंग हाउस’ रखा गया था। जिसका परिणाम यह निकला की एक अछूत विद्यार्थी भास्कर विठोजी जाधव 10 वी कक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ। बाद में भास्कर जाधव को शाहूजी महाराज ने सरकारी सेवा में प्रोबेशनरी सहायक पद पर नियुक्त किया। यह ब्राह्मणों से सहा नहीं गया और उनमे खलबली मच गयी और यहाँ तक की ब्राह्मणों ने शाहूजी को “ढोरों (जानवरों) का राजा” कहना शुरू कर दिया।
वो जानते थे की अश्पृश्यता को ख़त्म करने के लिए जाति व्यवस्था के कमजोर होना जरूरी है। इसीलिए उन्होंने 1918 से 1919 के बीच अछुतोध्धार सम्बन्धी विभिन्न अध्यादेश पारित किये। जिसमें अछूतों को आधुनिक शिक्षा और उच्च कोटि का ज्ञान प्राप्त कराने के लिए स्कूल, हॉस्टल, छात्रवृति एवं अन्य सुविधाए उपलब्ध कराने के बारे में प्रावधान किये गए। 30 सितम्बर 1919 के आदेश अनुसार उन्होंने सभी सार्वजानिक स्कुलो के दरवाजे अछूतों के लिए खोल दिए। 22 अगस्त 1919 को राज्य के विभागों में तथा प्रशासन में भेदभाव रोकने के लिए उन्होंने राज्य के अधिकारियों को कड़ी सुचना दे कर अध्यादेश दिया।
6 नवम्बर 1919 को उन्होंने सभी नगर निगमों को निर्देश जारी किया की वो अपने अछूत कर्मचारियों के लिए प्रोविडेंट फण्ड की व्यवस्था करें।
1919 से पहले अछूत कहे जाने वाले समाज के किसी भी सदस्य का इलाज किसी अस्पताल में नहीं हो सकता था। 1919 में शाहू जी ने एक आदेश जारी किया, जिसके अनुसार अछूत समाज का कोई भी व्यक्ति अस्पताल आकर सम्मानपूर्वक इलाज करा सकता है। उनका स्पष्ट विचार यह था कि भारत देश की उन्नति चाहे अतिशीघ्र हो या विलम्ब से यह जाति व्यवस्था के उन्मूलन पर निर्भर है। उनका यह भी मानना था की जाति व्यवस्था के उन्मूलन से सामाजिक ढांचे के इस बदलाव से ही भारत का आर्थिक विकास संभव होगा।
3 मई 1920 में उन्होंने कठोर नियम बनाकर बेगार प्रथा (बंधुआ मजदूरी) को ख़त्म करने की घोषणा की। 9 जुलाई 1917 को उन्होंने एक आदेश जारी किया कि कोल्हापुर राज्य के समस्त देवस्थानों की आय और संपत्ति पर राज्य का नियंत्रण होगा और घोषित किया की नया मठाधीश केवल महाराज की अनुमति से ही नियुक्त किया जा सकता है। उन्होंने गांवों में पुरोहितों और पुजारियों की प्रणाली को समाप्त कर दिया। इसके साथ ही उन्होंने मराठा (पिछड़ी) जाति के पुजारियों की नियुक्ति का भी आदेश जारी किया। 1920 में उन्होंने पूजा और पुरोहितों के प्रशिक्षण के लिए विद्यालय खुलवाया।
शाहूजी के समाज सुधार के इन कार्यो से ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती मिलना शुरू हो गई। इससे तिलमिलाकर ब्राह्मणों ने शाहूजी के कार्यो का प्रबल विरोध किया। ब्राह्मणों का नेतृत्व करते हुए बाल गंगाधर तिलक ने तो शाहूजी को यह धमकी तक भी दे डाली थी कि क्या शाहूजी को उनके पूर्वज शिवाजी महाराज का हश्र याद नही है। जब तिलक ने 11 नवम्बर 1917 के दिन एक जाहीर सभा को संबोधित करते हुए यह कहा की तेली तम्बोली कुणभट्टो (कुर्मी) को संसद में जाकर हल चलाना है, दर्जियों को संसद में जाकर कपड़े सिलने है क्या ? तो शाहूजी खुलकर सामने आये और तिलक के इन शब्दों की न केवल कड़ी भर्त्सना की बल्की इस पर चुप रहने वाली कोंग्रेस को भी निशाने पर लिया।
जोतीराव फुले के देहांत के बाद जब सत्य शोधक समाज कमजोर पड़ने लगा और भारतीय राष्ट्रीय कोंग्रेस ने सत्य शोधक समाज को निगलने की कोशिश की तो वह शाहूजी महाराज ही थे जिन्होंने सत्य शोधक समाज को सरंक्षण प्रदान किया। उन्होंने अपने विश्वस्त कर्मचारी हरिराव चव्हान एवं धनगर जाति के ढोण गुरूजी को नौकरी से मुक्त कर सत्य शोधक समाज संगठन का कार्य संभालने के लिए भेजा | बाद में भास्कर जाधव को भी उन्होंने भेजा था। शाहूजी भारतीय राष्ट्रीय कोंग्रेस को ब्राह्मणों के पार्टी मानते थे इसीलिए तो कोंग्रेस में शामिल होने के गोपाल कृष्ण गोखले के आमंत्रण को उन्होंने ठुकरा दिया था।
उनके लिए तो जातिव्यवस्था के खिलाफ चलाई उनकी इस जंग के लिए भीमराव अम्बेडकर ही एक उम्मीद थे। इसीलिए तो 1920 में मनमाड़ में अछूतों की एक विशाल सभा में बाबासाहब आंबेडकर की क्षमता का परिचय देते हुए शाहूजी महाराज ने घोषणा करते हुए कहा था-‘मुझे लगता है आंबेडकर के रूप में तुम्हें तुम्हारा मुक्तिदाता मिल गया है। मुझे उम्मीद है वो तुम्हारी गुलामी की बेड़ियाँ काट डालेंगे।’
9-21 अप्रैल 1919 को कानपुर में आयोजित अखिल भारतीय कुर्मी महासभा के 13 वें राष्ट्रीय सम्मलेन में राजर्षि के ख़िताब से नवाजे गये शाहूजी केवल 48 वर्ष की अल्प आयु में ही 6 मई 1922 को दुनिया से अलविदा कह गये। लेकिन जो मशाल उन्होंने फुले से प्रेरणा लेकर जलाई थी, उसकी रोशनी आज भी कायम है। अपने इस छोटे से जीवन काल में उन्होंने जो कार्य किये उन्हें सैकड़ो वर्ष के शासन काल में भी शायद कोई दूसरा करने का साहस जुटा पाता।
सुप्रसिद्ध जीवनीकार धनंजय कीर ने अपनी पंक्तियों में लिखा है ‘छत्रपति की देशभक्ति उनके हृदय का विकास है। उनकी उनमें बसी हुई मानवसेवा का विकास है। भारत में कई अच्छे राजा एवं नेता आकर चले गए, उनके रत्नजड़ित सिंहासन काल के हृदय में समा गए। सम्राटों के राजपाट नक़्शे पर से मिट गए। परन्तु जो राजा राजर्षि बने उनके ही नाम केवल इतिहास में अजर-अमर बने रहे। जननेता होकर भी जनसागर की लहर पर आरूढ़ होकर राजवैभव में चमकने वाले शाहू छत्रपति जैसा राजर्षि दुर्लभ है।’