खेती किसानी एक जमाना था जब ज्वार हमारे विन्ध्य क्षेत्र का प्रमुख रूप से खाया जाने वाला अनाज हुआ करता था। तब प्रायः हर कृषक इसे अपने खेतों में उगाता एवं अगहन से लेकर फागुन तक रोटी खाता । कुछ लोग तो इसकी घाठ (दलिया) भी रांध कर खाते । तासीर गर्म होने के कारण ज्वार के खाने से एक लाभ यह भी होता कि वह शरीर को सीत जनित बीमारियों से भी बचाव करती।
जब हम लोग 1954-55 में चौथी – पांचवीं कक्षा में पढ़ते थे तो ज्वार की तकाई हम सभी किशोर वय युवाओं के जिम्मे ही होती थी। क्योकि देश तो आजाद हो चुका था पर कुछ कानून कायदे रियासती जमाने के ही चलते थे। अस्तु जब हमारी दशहरा से लेकर दीवाली तक 28 दिन की छुट्टी होती तो सूर्योदय के पहले ही हम गोफना लेकर लकड़ी के बने मचान पर बैठ जाते। क्योकि चिड़ियों की एक मर्यादा होती है कि वह सूर्योदय से सूर्यास्त के पहले तक ही दाना चुगती हैं रात्रि में नही।
ज्वार की तकाई करते-करते हमें यह तो मालूम हो ही जाता था कि उसकी चरकी, दुदनिया,बैदरा,अरहरा, लाटा गुरदी,बामनी आदि कौंन- कौंन 10-12 किस्म हैं ? बल्कि यह भी मालूम होजाता कि तोता, पेंगा, गलरी नामक पक्षी ही ज्वार के दाने चुगते हैं। बांकी चिड़ियां यदि खेत में आती भी हैं तो दाना चुगन नही बल्कि मूँग ,उड़द, अरहरा, तिल आदि में लगने वाले कीटों को खाने। इससे हमें सहज ही अनाज़ों और उनमें लगने वाले कीड़ों तक कि बहुत सारी जैव विविधता मालूम हो जाती थी।
ज्वार ऐसी फसल है जिसकी बगैर तकाई किए खेती सम्भव नही है। पर उसकी एक यह विशेषता भी हमें देखने को मिलती थी कि वह पूरी तरह समाज वादी अनाज है। उसमें बगैर कोई किसी को नुकसान पहुँचाएं तिल अरहर,अम्बारी, मूँग,उड़द,भिंडी,बरवटी आदि 5-6 प्रकार के अनाज हो जाते थे जो अलग-अलग जरूरतों की पूर्ति करते थे। परन्तु 70 के दशक में आई हरितक्रांति ने एक तरफ जहां गेहूं और धान की जरूरत से अधिक उपज बढ़ा दी थी तो दूसरी तरफ कोदो कुटकी, सांवा, काकुन,ज्वार , मक्का आदि बहुत से अनाज़ भी हमारी थाली से दूर कर दिया।
जरूरत से अधिक पैदावार के कारण जब गेहूं धान का भाव पहले से 10 गुना कम हो गया तो उसका असर इन तमाम मोटे अनाजों पर भी पड़ा और इनकी सब की खेती ही लाभ रहित खेती में पहुँच गई। परिणाम यह हुआ कि हमारे विन्ध्य में ज्वार की खेती पूर्णतः समाप्त सी हो गई। जो लोग ज्वार को खाना भी चाहते तब भी वह उन्हें सहज उपलब्ध नही थी। मुझे 2016 में सुखद आश्चर्य तब हुआ जब डभौरा के श्री जगदीश सिंह यादव ने बताया कि रीवा जिला के तराई बाले क्षेत्र अतरैला के आस-पास 30-40 ग्रामों में उसकी खेती अब भी होती है। लेकिन किसानों को उसका उचित मूल्य नही मिलता। हम लोगों ने उन किसानों को लाभ दिलवाने का बीड़ा उठाया जिससे लोगों को ज्ञात हो कि रीवा जिले का 25-30 ग्रामों का यह बीहड़ वाला ऐसा क्षेत्र है जहां गेहूं धान नही ज्वार ,अरहर,चने सरसोंऔर अरण्डी की खेती ही सम्भव है। एवं वह वहां से ज्वार ले सकते हैं।
श्री जगदीश सिंह जी के उस ज्वार महोत्सव में जैव विविधता बोर्ड के तत्कालीन सदस्य सचिव माननीय श्री आर. श्रीनिवास मूर्ति जी, वन विभाग के रिटायर सहायक वन संरक्षक, श्री एम,एम, द्विवेदी, श्री ब्यासमुनि पांडे ,वरिष्ठ पत्रकार श्री जयराम शुक्ल, प्रगतिशील कृषक श्री प्रणवीर सिंह हीराजी एवं छतरपुर जिले के श्री रोहित सिंह राणा जी सहित जहां अनेक जैव विविधता में रुचि रखने वाले महानुभव उपस्थित हुए वही तमाम ग्रामों के किसान भी शामिल थे। उसका असर भी सकारात्मक हुआ कि 10 रुपये किलो स्थानीय ब्यापारियों द्वारा खरीदी जाने वाली ज्वार बाद में 20-25 रुपये किलो में बिकी।
उक्त कार्यक्रम में वहां के किसानों ने मेरे 70 किलो वजन के बराबर ज्वार से मुझे तौल कर भेंट किया। पर मैने कहा कि “यह ज्वार अपने घर लेजाने के बजाय मैं (कोलमोजरा ) गांव के बीज बैंक को दे रहा हूं।” उक्त बीज बैंक का उद्घाटन भी कुछ माह पहले मेरे द्वारा ही हुआ था। बाद में श्री जगदीश सिंह यादव के देख रेख में उक्त बीज बैंक ने वह ज्वार कई इच्छुक किसानों को दी थी।
आज बीज महोत्सव को बीते लगभग 7 वर्ष होने को हैं। पर रीवा से प्रकाशित (पत्रिका ) नामक समाचार पत्र को पढ़कर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि वह ज्वार न सिर्फ अभी तक वह किसान और कृषक महिलाएं उगाती हैं बल्कि उसके साथ अभी तक मेरी एक पहचान भी जुड़ी हुई है।
लेखक: पद्मश्री बाबूलाल दाहिया/ प्रेषक: अनुपम अनूप