कर्मण्येवा धिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मां कर्मफल हेतुर् भूर्मा ते संगो ऽस्त्व कर्मणि।।४७।।
अब चराचर गुरु हरि श्रीकृष्ण भगवान अर्जुन से कहते हैं कि कर्म करने में तुम्हारा अधिकार है, कर्म फल प्रदान करने में तुम्हारा अधिकार नहीं है। तुम कर्म फल भोग का कारण न बनो और कर्म न करने में भी तुम्हारी रुचि न हो। मनुष्य को कर्म करने का अधिकार प्राप्त है। वह अपनी रुचि के अनुसार और योग्यता के अनुसार शास्त्र विहित श्रेष्ठ कर्मों में कोई भी कर्म चुनकर कर्म कर सकता है। ध्यान रहे कि योगी कभी निषिद्ध कर्म अथवा निन्दित कर्म नहीं करता। योगी सदा करने योग्य कर्म ही करता है। कर्म फल प्रदान करना मनुष्य के हाथ में नहीं है, यह प्रकृति अथवा परमेश्वर के हाथ में है। शुभ कर्म का अनुष्ठान करने से इहलोक और स्वर्ग लोक में मनोवांछित दिव्य भोग मिलते हैं, परंतु अशुभ कर्म करने से नरक में नारकीय दुख- असह्य कष्ट भोगना पड़ता है। स्वर्ग और नरक शुभ और अशुभ कर्मों के फल हैं। सकाम भाव अर्थात् फल की इच्छा से शुभ कर्म करने पर मनुष्य को स्वर्ग का सुख और अशुभ कर्म करने पर नरक का दुख भोगना पड़ता है। इसीलिए महा योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तुम सुख दुख भोगने के लिए सकाम कर्म कभी न करो। जब सुख दुख से योगी का कोई लेना देना नहीं है, तब योगी कर्म क्यों करें। इस पर श्रीभगवान कहते हैं कि तुम कर्म न करने में रुचि न दिखाना अन्यथा तुम अकर्मण्य बन जाओगे और तुम्हारा पतन हो जाएगा। कर्म करने से ही अपना कल्याण होता है और दूसरे का भी कल्याण होता है। अकर्मण्य मनुष्य न तो अपना कल्याण करता है और न दूसरे का ही कल्याण करता है। इसीलिए श्री कृष्ण भगवान स्पष्ट निर्देश देते हैं कि तुम कभी सकाम भाव से कर्म न करो,अन्यथा कर्म बंधन होगा और सुख- दुख भोगना पड़ेगा तथा कर्म न करने में भी रुचि नहीं होनी चाहिए,अन्यथा इस लोक और परलोक दोनों से भ्रष्ट हो जाओगे। निष्काम भाव से कर्म करने पर ही योग का अभ्यास होगा, कर्म न करने पर कर्म योग का अभ्यास नहीं हो सकता। इसलिए मनुष्य को सदा निष्काम भाव से कर्म योग का अभ्यास करके परम गति प्राप्त करना चाहिए। कर्म कैसे करना चाहिए- इस पर श्री भगवान आगे कहते हैं कि-
योगस्थ: कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्ध्य सिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।४८।।
नीलोत्पल दल श्याम पीतांबर परिधान श्री कृष्ण भगवान कहते हैं कि- हे धनंजय अर्जुन, तुम योग युक्त होकर कर्म करो और आसक्ति त्याग दो। आसक्ति त्याग कर कर्मों की सिद्धि और असिद्धि में समभाव – समत्व-समता रखना ही कर्मयोग कहा जाता है। कर्मयोग को ही बुद्धियोग कहा जाता है।राजसूय यज्ञ के समय अर्जुन ने अनेक राजाओं को परास्त करके बहुत सा धन जीता था, इसलिए उनका एक नाम धनंजय पड़ गया। अब अंतर्यामी परमात्मा सर्वज्ञ श्रीकृष्ण भगवान कर्मयोग के स्वरूप का वर्णन कर रहे हैं। श्रीभगवान कहते हैं कि कर्म योग का अनुष्ठान करने के लिए मनुष्य को योग युक्त होकर कार्य करना चाहिए। कर्मों के प्रति जो मन में गाढ़ी आसक्ति-लगाव है, उसका त्याग कर देना चाहिए। कर्म करते समय जब मनुष्य को असफलता हाथ लगती है, उस समय निराश नहीं होना चाहिए और जब कर्म का अनुष्ठान करने से सफलता मिलती है तो उसके फल में आसक्त होकर हर्ष प्रकट नहीं करना चाहिए।कर्म योग का आचरण करते समय मन को सुख-दुख, हर्ष शोक से परे रखकर परमात्मा के स्वरूप में मन लगाना चाहिए और मन में यह भाव रखना चाहिए कि हम इस कर्म का फल श्री भगवान को समर्पित कर दे रहे हैं, इससे हमारा कोई संबंध नहीं है। सफलता- असफलता की चिंता से मुक्त रहकर कर्म करना ही योग युक्त होकर कर्म करना है। ईश्वर- अर्पण बुद्धि से कर्म करना ही कर्मयोग है। समभाव रखना अर्थात् समता ही योग का प्रधान लक्षण है। कर्म योग में सिद्धि-सफलता प्राप्त होने पर योगी को यही समता प्राप्त होती है। समता ही योगसिद्धि का प्रमुख लक्षण है।
गुरुतर कर्म धर्म उपदेशा। केशव महिमा कथन विशेषा।। धर्म का उपदेश देना कठिन कार्य है और श्रीकृष्ण भगवान की महिमा का कथन करना तो सबसे कठिन कार्य है।
कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्।
स्वयं श्री भगवान ही श्री कृष्ण रूप में प्रकट हुए।
सुन्दर विग्रह मेघ समाना।
कृष्ण कमल लोचन भगवाना।।
कमलनयन श्री कृष्ण भगवान की देह नील मेघ के समान अत्यंत सुंदर है।
श्रीकृष्ण भगवान की जय।
विजय नारायण गुरुजी वाराणसी।
गीता सुगीता कर्तव्या।
जय भगवद् गीते।