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अक्टूबर की कसक-

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संदीप नाईक

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हम सबकी ज़िंदगी में दर्द का स्थान सबसे ज़्यादा है और यह समझाने की या समझने की ज़रूरत नही है, कोई ज्ञानी या अज्ञानी इसे बहुत अच्छे से बता सकता है और इसे एक अकथ कहानी की तरह किस्सागो बनकर सदियों तक सुना सकता है, हमारी तमाम गाथाएँ और गीत – संगीत इनसे भरा पड़ा है – क्योंकि दर्द हम सबके जीवन का स्थाई भाव है

पर असल बात इसके आगे से शुरू होती है – इसी दर्द से हमने बांसूरी की तान निकाली है और इसी से मांदल की थाप गूँजी है, इसी से हमने इतने हँसी के ठहाके लगायें है कि आवाज़ व्योम तक गई है, इसी दर्द के अनुष्ठान से हमने राग दरबारी रचा है और इसी से हमने वेद – पुराण और ऋचाओं की रचना की है

अब सवाल है कि हम इस दर्द को सहते रहें, जूझते रहें और एक दिन किसी सर्द सुबह को यूँ गुज़र जाये – मानो हम कभी यहॉं थे ही नही, दूसरा मार्ग कठिन है – जो कहता है कि नया राग रचें और राग दरबारी भाग दो रचकर अपनी छाप उन रास्तों पर छोड़ दें – भले वक्त की धूल उन्हें उड़ा दें, उन रास्तों पर उन्मुख हो – जिनपर कभी कोई ना चला हो

मैं जानता हूँ कि रोजी – रोटी, घर परिवार और दैनिक जीवन के दलदलों में फँसें हम लोग इसे चुनौती मानकर विचारेंगे भी नही, पर हममें से किसी ना किसी को तो नया राग, नया रास्ता, नया संघर्ष रचना होगा ना – नही तो हम सिर्फ़ भेड़चाल में धँसकर ही खत्म हो जाएंगे, समय के चक्र में हमारी उपस्थिति कैसे दर्ज़ होगी यह विचारना ही होगा

हम सबके पास समय बहुत कम बचा है, हमारे अंग ही नही इच्छा शक्ति, कौशल और दक्षताएँ भी लगातार क्षरित होते जा रही है, हमारे सोचने – विचारने की शक्ति अनंतिम रूप से धन इकठ्ठा करने, संपत्ति बनाने, अपने वारिसों को स्थापित करने में और अपनी बीमारियों पर केंद्रित होते जा रही है, हम सब बेहद कमज़ोर होते जा रहें है शारीरिक, मानसिक रूप से और यही दुर्बलताएँ हमें स्वार्थी और लोभी बना रही है – हम नये उत्तुंग पहाड़ों पर चढ़ने से और अतल गहराइयों में उतरने से बच रहें है

“जिसने दाँत दिए है वो खाने को भी देगा” – पिता कहते थे, अक्टूबर इस बात को दोहराने का और गहराई से समझने का मौका देता है, नये साल में लिये संकल्पों को पलटकर, दोहराने का और प्रतिबद्धता से पूरा करने की याद दिलाता है, इसलिये सब छोड़कर लौट आये और एक नया रास्ता चुने, नया पथ अपनाकर पाथेय बने – ताकि कम से कम हम तो अपने – आपको किसी उजले और स्वच्छ आईने में सम्पूर्ण स्वरूप में देख सकें – वरना तो जीवन सभी जी ही रहें है रोज जी और मर रहें है – इन्हीं विरोधाभासों के बीच बगैर प्रतिफल और अनुतोष के.

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