क्या आप जानते हैं कि मध्यप्रदेश के रतलाम के एक जंगल में आज भी इतिहास की सबसे खौफनाक चीखें गूंजती हैं? ऐसा इतिहास, जो किताबों के पन्नों से नहीं, बल्कि धरती पर बिखरे हुए पत्थरों से हमें पुकारता है। उन पत्थरों में छिपा है वो दर्द, वो कराह, जिसे मुगल सल्तनत के सबसे क्रूर शासक औरंगजेब ने सदियों पहले रचाया था। आज हम आपको ले चलेंगे रतलाम के उन घने जंगलों में, जहां मंदिर के खंडहर सिर्फ पत्थर नहीं हैं, बल्कि भारतीय संस्कृति पर किए गए सबसे बड़े हमले की गवाही देते हैं। इन वीरान खंडहरों में आज भी औरंगजेब के आतंक की कहानी सांस ले रही है।
मध्यप्रदेश के रतलाम जिले में, जिला मुख्यालय से 30 किलोमीटर दूर बसा है राजापुरा गांव — जो गढ़खंखाई माता मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन इससे भी चार किलोमीटर आगे, जोधपुरा की ओर जाने वाले रास्ते में जंगल के सीने में दबी एक ऐसी सच्चाई है, जिसे शायद इतिहास की किताबों में जगह नहीं मिली। यहां है ‘उच्चानगढ़’ किला, जिसके करीब स्थित था मां भद्रकाली का एक भव्य और प्राचीन मंदिर। कहा जाता है कि इस मंदिर की दिव्यता और भव्यता मुगल शासक औरंगजेब के साम्राज्य की आंखों में खटक गई थी। औरंगजेब ने अपने सैनिकों को भेजकर इस मंदिर को ध्वस्त करवा दिया। नतीजा ये कि मंदिर के पत्थर आज भी एक से डेढ़ किलोमीटर के दायरे में बिखरे हुए हैं — एक खामोश किंतु करुण चीख की तरह।
इतिहासकारों के अनुसार, उच्चानगढ़ यानी प्राचीन राजापुरा, कभी राजा जस्सा महिड़ा सत्ता की राजधानी हुआ करती थी। इतिहास के जानकार प्रकाश गोस्वामी बताते हैं कि मंदिर के बचे हुए पत्थरों को देखने पर साफ पता चलता है कि ये पत्थर उस दौर के हैं जब निर्माण में इंटरलॉकिंग तकनीक का प्रचलन नहीं था। यहां तक कि ताजमहल के निर्माण में भी जिस इंटरलॉकिंग कारीगरी का इस्तेमाल हुआ, वो यहां नदारद है। यानी, यह मंदिर ताजमहल से भी कई वर्षों पहले अस्तित्व में रहा होगा। इतना ही नहीं, विशेषज्ञों के मुताबिक इन पत्थरों की किस्म रतलाम में पाई ही नहीं जाती। इसका मतलब साफ है कि इन पत्थरों को दूर-दराज से लाकर इस मंदिर का निर्माण किया गया था — एक अद्भुत शिल्प और संस्कृति की मिसाल, जिसे सत्ता की सनक ने मिट्टी में मिला दिया।
मां भद्रकाली के खंडित मंदिर के अवशेष आज भी जंगल के उस वीराने में सिसकते मिल जाएंगे। राजापुरा माता मंदिर से जब आप जोधपुरा की ओर बढ़ेंगे, तो माही नदी के किनारे सड़क घुमावदार पहाड़ियों के बीच से निकलती है। इसी रास्ते पर, एक तरफ बहती नदी और दूसरी तरफ झाड़ियों और जंगलों के बीच, अचानक मंदिर के टूटे-फूटे पत्थर दिखने लगते हैं। सड़क किनारे एक शिवलिंग की स्थापना की गई है, ताकि राहगीर इन चुपचाप पड़े इतिहास के पत्थरों को पहचान सकें। लेकिन इन पत्थरों के बीच वो आवाजें आज भी गूंजती हैं, जो बताती हैं कि सत्ता की हवस जब संस्कृति पर हमला करती है, तो सिर्फ इमारतें नहीं टूटतीं — सभ्यता की आत्मा भी कराह उठती है।
यह मंदिर न सिर्फ धार्मिक आस्था का केंद्र था, बल्कि तत्कालीन समाज की सामूहिक सांस्कृतिक पहचान भी। औरंगजेब के आदेश पर हुए इस विध्वंस ने उस समय के स्थानीय निवासियों की धार्मिक स्वतंत्रता और सांस्कृतिक अस्मिता पर सीधा प्रहार किया। लेकिन आज, जब उन खंडहरों पर नज़र डालते हैं, तो समझ में आता है कि सत्ता कितनी भी शक्तिशाली हो, संस्कृति मिटाई नहीं जा सकती। जरूरत है, इन अवशेषों को संरक्षित करने की, ताकि नई पीढ़ी जान सके कि हमारी धरती ने किस तरह के अत्याचार सहे हैं और किस तरह हर बार पुनर्जन्म लिया है