Written by: Journalist Vijay
सिंगरौली की धरती पर आजकल एक गजब का कौतुक चल रहा है। यहाँ उत्सव है—हत्या का। पर यह किसी मामूली अपराधी की हत्या नहीं है, यह छह लाख पूर्वजों की सामूहिक हत्या है। सरकार कहती है, “हम पेड़ काट रहे हैं।” मैं कहता हूँ, “सरकार अपनी मर्यादा काट रही है।” सिंगरौली, जिसे कभी ‘ऊर्जा की राजधानी’ कहा जाता था, अब ‘अडानी की चरागाह’ बन चुका है।
मुझे लगता है कि, “सरकार बड़ी उदार होती है। वह अपनी माँ के नाम पर एक पेड़ लगवाती है, और दोस्त के नाम पर पूरा जंगल कटवा देती है।” यह विकास का नया गणित है। एक तरफ़ हम ‘नेट ज़ीरो’ और ‘सोलर पावर’ का भजन गाते हैं, और दूसरी तरफ़ छह लाख पेड़ों की अर्थी उठाकर उस पर कोयले की भट्टी सुलगाते हैं।

1. विकास का खूनी गणित: धिरौली कोल ब्लॉक
दिसंबर 2025 की सर्द रातों में सिंगरौली के जंगलों में आरी की आवाज़ें गूँज रही हैं। धिरौली कोल ब्लॉक के नाम पर करीब 1,400 हेक्टेयर का घना जंगल साफ किया जा रहा है। कुल 2,672 हेक्टेयर ज़मीन का सौदा हुआ है। सरकार कहती है कि इससे देश को बिजली मिलेगी। पर साहब, बिजली तो सूरज से भी मिल सकती है, पर महुआ और साल का वह पेड़, जो सौ साल में जवान हुआ है, उसे आप किसी फैक्ट्री में नहीं बना सकते।
यह सौदा ‘बेकार’ इसलिए है क्योंकि यह ‘ऊर्जा’ नहीं, ‘विनाश’ पैदा कर रहा है। सरकार का तर्क है—”हमें बिजली चाहिए!” वाह! बिजली के लिए जंगल काटेंगे, और फिर उसी बिजली से चलने वाले एयर कंडीशनर में बैठकर ‘ग्लोबल वार्मिंग’ पर सेमिनार करेंगे। यह वैसा ही है जैसे कोई प्यास बुझाने के लिए अपना खून बेचकर ज़हर की बोतल खरीद लाए।
2. गाँवों का विलाप: जब घर ही खदान बन जाए
धिरौली, बासी बरदह, अमरेली, और बिरकुनिया—ये सिर्फ नक्शे के नाम नहीं हैं, ये उन लोगों की दुनिया हैं जिन्हें पुलिस के जूतों की धमक के बीच उनके घर से बेदखल किया जा रहा है।
- बासी बरदह: यहाँ नवंबर 2025 में जब ग्रामीणों ने अपनी ज़मीन बचाने के लिए आवाज़ उठाई, तो जवाब में 1,500 पुलिस जवान मिले। प्रशासन कहता है कि “सहमति” ले ली गई है। पर यह सहमति वैसी ही है जैसे कोई डकैत पिस्तौल तानकर पूछे—”अपनी घड़ी दोगे या जान?”
- दोहरा विस्थापन: यहाँ के कई परिवार ऐसे हैं जो पहले ‘रिहंद बाँध’ के लिए हटे, फिर ‘एनसीएल’ की खदानों के लिए हटे, और अब अडानी के लिए हट रहे हैं। बेचारा आदिवासी! वह भारत का नागरिक कम, ‘विकास का फुटबॉल’ ज़्यादा है।
3. ‘काग़ज़ी जंगल’ और मुआवजे का मज़ाक
सरकार का सबसे बड़ा लतीफा है—Compensatory Afforestation (CA)। वे कहते हैं, “हम 6 लाख काटेंगे और 14 लाख लगाएंगे।”
- कहाँ लगाएंगे? सिंगरौली में नहीं! वे लगाएंगे आगर मालवा, रायसेन, शिवपुरी और सागर में।
- तर्क: यह वैसा ही है जैसे आप सिंगरौली के किसी आदमी का हाथ काट दें और कहें, “घबराओ मत, हमने सागर में एक नया हाथ मिट्टी में गाड़ दिया है, वह दस साल में उग आएगा।” क्या रायसेन का पौधा सिंगरौली की ज़हरीली हवा को साफ करेगा? क्या वह वहां के लुप्त होते जल स्रोतों को बचाएगा? विज्ञान कहता है ‘नहीं’, पर सरकारी फाइलें कहती हैं ‘हाँ’। और फाइलों का क्या है, वे तो बिना ऑक्सीजन के भी ज़िंदा रहती हैं।
4. जब दुनिया ने कहा—”नहीं, हमें कोयला नहीं, जंगल चाहिए”
ऐसा नहीं है कि यह आपदा सिर्फ भारत में है, पर फर्क यह है कि कुछ देशों ने अपनी ‘रीढ़ की हड्डी’ सलामत रखी है:
- जर्मनी (Hambach Forest): यहाँ भी कोयला माफिया ने प्राचीन जंगल काटने की ठानी थी। हज़ारों लोग पेड़ों पर चढ़ गए, सालों तक विरोध किया। अंततः, जर्मन अदालतों और जनता के दबाव में सरकार को झुकना पड़ा।
- यूनाइटेड किंगडम (Cumbria): हाल ही में ब्रिटेन ने एक नई कोयला खदान के प्रस्ताव को रद्द कर दिया क्योंकि यह उनके पर्यावरण लक्ष्यों के खिलाफ था। उन्होंने साफ़ कहा—”भविष्य कोयले का नहीं, तकनीक का है।”
5. विनाश के बिना विकास: विकल्प क्या हैं?
अगर सरकार की मंशा सचमुच रोशनी फैलाने की होती, तो वह इन 2,800 करोड़ रुपयों को विनाश में नहीं, तकनीक में लगाती:
- बंजर भूमि पर सोलर ग्रिड: मध्य प्रदेश में लाखों एकड़ ऐसी ज़मीन है जहाँ घास का तिनका नहीं उगता। उस ‘बंजर’ को सोलर ग्रिड में क्यों नहीं बदला जाता? क्या कोयला पेड़ों की जड़ों में नहीं, बल्कि सरकार की नीयत में फँसा है?
- सोलर स्टोरेज (Battery Technology): सरकार का रोना है कि “सूरज रात को नहीं चमकता।” तो साहब, जो पैसा आप पुलिस और जंगलों की कटाई में फूँक रहे हैं, उसे ‘बैटरी स्टोरेज’ तकनीक में लगाइए।
- बंद खदानों का पुनरुद्धार: नई खदानें खोदने के बजाय, सिंगरौली की पुरानी और बंद पड़ी खदानों से आधुनिक तकनीक से ऊर्जा निकालें।
6. कानूनी लड़ाई और प्रतिरोध
आज इस विनाश के खिलाफ कुछ मुट्ठी भर लोग खड़े हैं:
- हाई कोर्ट का हस्तक्षेप: नवंबर 2025 में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने Suo Motu संज्ञान लेते हुए पेड़ों की कटाई पर सवाल उठाए हैं।
- पेसा (PESA) कानून का उल्लंघन: आदिवासियों का आरोप है कि ग्राम सभा की अनुमति या तो ली नहीं गई, या डरा-धमका कर ली गई। 2023 तक यह क्षेत्र ‘पांचवीं अनुसूची’ में था, जिसे खनन के लिए रातों-रात कागजों पर बदल दिया गया।
आने वाली पीढ़ी का श्राप
आज हम जिसे “प्रगति” कह रहे हैं, कल हमारे बच्चे उसे “अपराध” कहेंगे। जब सिंगरौली की हवा में सिर्फ ज़हर बचेगा और पानी की जगह कोयले का चूरा, तब क्या हम उन्हें अडानी के शेयर खिलाकर पालेंगे?
सरकार को समझना होगा—जंगल ‘संपत्ति’ नहीं, ‘संस्कृति’ है। और जो अपनी संस्कृति बेचता है, इतिहास उसे ‘विकास पुरुष’ नहीं, ‘व्यापारी’ कहता है। कुल्हाड़ी चलती रहे, क्योंकि जब तक जंगल गिरेंगे नहीं, तब तक किसी की ऊँची इमारतें खड़ी नहीं होंगी।
कुल्हाड़ी की जय हो!





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