Writer: Journalist Vijay
TKN Prime News के लिए विशेष रिपोर्ट
व्रत की शाश्वत परंपरा
सनातन धर्म में एकादशी तिथि का स्थान अत्यंत विशिष्ट है। इसे ‘व्रतों में श्रेष्ठ’ और भगवान श्री हरि विष्णु की प्रिय तिथि माना गया है। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष में आने वाली एकादशी को रमा एकादशी के नाम से जाना जाता है। ‘रमा’ शब्द माँ लक्ष्मी का पर्याय है, इसलिए यह एकादशी भगवान विष्णु के साथ उनकी शक्ति (माँ लक्ष्मी) की संयुक्त आराधना का पर्व है। यह व्रत धन, ऐश्वर्य, सुख और अंततः मोक्ष प्रदान करने वाला माना जाता है, और यह दीपावली महापर्व से ठीक पहले आने के कारण इसका महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है।
युधिष्ठिर महाराज ने पूछा, “हे जनार्दन (भगवान कृष्ण), कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष में पड़ने वाली एकादशी का क्या नाम है? कृपा करके मुझे इस पवित्र ज्ञान से अवगत कराएं।”
यह संवाद स्वयं एकादशी व्रत की सार्वभौमिक स्वीकार्यता और प्रमाणिकता को स्थापित करता है। महाभारत का यह प्रश्नोत्तर पर्व, जिसमें धर्म और ज्ञान की गुत्थियाँ सुलझाई गई हैं, सिद्ध करता है कि एकादशी केवल एक व्रत नहीं, बल्कि धर्म, तपस्या और मोक्ष के मार्ग का एक अनिवार्य स्तंभ है। इस रिपोर्ट में हम इसी संवाद को आधार बनाकर, रमा एकादशी के महत्व को वेदों, उपनिषदों, पुराणों, महाभारत, भगवद गीता और रामचरितमानस के व्यापक संदर्भ में समझेंगे।
रमा एकादशी का पौराणिक महात्म्य: पद्म पुराण के आलोक में
एकादशी व्रतों का सर्वाधिक विस्तृत और आधिकारिक वर्णन पद्म पुराण (विशेष रूप से उत्तरखण्ड) तथा स्कन्द पुराण में प्राप्त होता है। पद्म पुराण में ही श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर के बीच हुए संवाद के क्रम में रमा एकादशी की कथा आती है, जिसे ‘रंभा एकादशी’ या ‘कार्तिक कृष्ण एकादशी’ भी कहा जाता है।
राजा मुचुकुन्द और शोभन (Raja Mukund and Shobhan)
कथा का आरंभ राजा मुचुकुन्द से होता है, जो अत्यंत धर्मात्मा, सत्यनिष्ठ और भगवान विष्णु के परम भक्त थे। वह निष्कंटक राज्य पर शासन करते थे और उनके राज्य में सभी धार्मिक नियमों का कड़ाई से पालन होता था। उनकी पुत्री का नाम चन्द्रभागा था, जिसका विवाह उन्होंने चन्द्रसेन कुमार शोभन के साथ किया था।
एक बार शोभन अपनी पत्नी चन्द्रभागा के साथ अपने ससुर राजा मुचुकुन्द के यहाँ आए। तभी कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी का आगमन हुआ। राज्य में घोषणा कर दी गई कि एकादशी के दिन कोई भी भोजन नहीं करेगा, यह अनिवार्य व्रत है।
शोभन स्वभाव से कमजोर और भूख-प्यास सहन करने में असमर्थ थे। जब एकादशी का दिन आया, तो वे अत्यधिक चिंतित होकर अपनी पत्नी चन्द्रभागा से बोले:
“हे प्रिये, मुझे व्रत सहन करने की शक्ति नहीं है, और यदि मैं व्रत नहीं रखता हूँ, तो मेरे ससुर के राज्य का नियम टूटेगा। यदि मैं व्रत रखता हूँ, तो संभव है कि मेरी मृत्यु हो जाए। ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए, तुम ही मुझे बताओ।”
चन्द्रभागा ने उत्तर दिया कि उनके पिता के राज्य में दशमी के दिन भोजन करने वाला और एकादशी के दिन व्रत न रखने वाला व्यक्ति नरकगामी होता है, और यह अत्यंत कठोर नियम है। उसने शोभन को समझाया कि यदि वह व्रत नहीं रख सकते, तो उन्हें इस राज्य से कहीं और चले जाना चाहिए।
शोभन ने धर्म की मर्यादा को समझते हुए, मृत्यु का भय होते हुए भी, एकादशी का व्रत रखने का संकल्प लिया। दुर्भाग्यवश, अत्यधिक भूख और प्यास के कारण द्वादशी तिथि के आने से पूर्व ही उनका निधन हो गया।
चन्द्रभागा ने अपने पति के शरीर का विधिवत दाह संस्कार किया, परंतु सती होने के बजाय उसने रमा एकादशी के पुण्य पर विश्वास करते हुए अपने पिता के घर में ही रहने का निश्चय किया।
रमा एकादशी का चमत्कारी फल
रमा एकादशी व्रत के प्रभाव से शोभन को मृत्यु के पश्चात मंदराचल पर्वत पर एक अत्यंत सुंदर, चिंतामणि रत्न-जटित देवपुर नामक नगर प्राप्त हुआ। यह नगर कामधेनु गाय और कल्पवृक्ष से सुशोभित था, जहाँ उसे भगवान विष्णु का सामीप्य प्राप्त हुआ।
एक बार राजा मुचुकुन्द के नगर का एक ब्राह्मण सोमशर्मा भ्रमण करते हुए मंदराचल पर्वत पर पहुँचा और उसने शोभन को उस दिव्य रूप में देखा। शोभन ने ब्राह्मण को अपने पूर्व जीवन की कथा सुनाई और बताया कि यह सब रमा एकादशी के व्रत के अल्प प्रभाव से ही संभव हुआ है। परंतु, शोभन को ज्ञात हुआ कि उसका देवपुर अस्थायी है, क्योंकि उसने श्रद्धा से व्रत किया था, किंतु व्रत का पारण विधिवत नहीं किया था, जिसके कारण उसकी नगरी अविनाशी नहीं थी।
ब्राह्मण सोमशर्मा ने वापस जाकर चन्द्रभागा को यह कथा सुनाई। चन्द्रभागा अत्यंत प्रसन्न हुई और उसने सोमशर्मा के साथ उसी क्षण दिव्य नगर की ओर प्रस्थान किया। चन्द्रभागा ने अपने पिछले आठ वर्षों के एकादशी व्रतों का समस्त पुण्य शोभन को दान कर दिया, जिससे उसका देवपुर नगर अविनाशी और स्थायी बन गया।
सार: यह पौराणिक कथा सिद्ध करती है कि रमा एकादशी का व्रत न केवल भौतिक सुख (सुंदर नगर) देता है, बल्कि भक्ति और समर्पण के बल पर मोक्ष (अविनाशी लोक) का मार्ग भी खोलता है।
दार्शनिक आधार: भगवद गीता और महाभारत का संदर्भ
1. भगवद गीता में कर्म योग और तपस्या (Chapter 3, 4, 17)
A. एकादशी एक यज्ञ के रूप में (Yajña as duty): भगवद गीता कर्म योग के सिद्धांत को स्थापित करती है, जिसमें प्रत्येक कर्म को यज्ञ (sacrifice) के रूप में देखा गया है। एकादशी का व्रत इसी दैव यज्ञ (देवताओं के प्रति किया गया यज्ञ) का एक रूप है।
- गीता, अध्याय 3, श्लोक 9:
यज्ञाथार्त्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर॥
अर्थात: यज्ञ के निमित्त किए गए कर्मों के अतिरिक्त अन्य कर्मों में लगा हुआ यह मनुष्य समुदाय कर्मों के बंधन में फँस जाता है। इसलिए हे कुन्तीपुत्र! तू आसक्ति से रहित होकर यज्ञ के निमित्त ही कर्म कर।
व्रत रखना, इंद्रियों को रोकना और सात्विक आहार/उपवास करना, निःस्वार्थ भाव से किया गया कर्म है, जो सांसारिक फल की इच्छा से मुक्त होकर केवल भगवान विष्णु को समर्पित होता है। यह कर्मबंधन से मुक्ति दिलाता है।
सात्विक तपस्या (Sattvik Tapas): गीता का 17वाँ अध्याय तीन प्रकार के तप (शारीरिक, वाचिक और मानसिक) का वर्णन करता है। एकादशी व्रत मुख्य रूप से शारीरिक तप और मानसिक तप है।
- शारीरिक तप (Physical Austerity): अन्न त्याग, उपवास और पवित्रता बनाए रखना।
- मानसिक तप (Mental Austerity): मन को एकाग्र करना, मौन धारण करना, और आत्म-नियंत्रण (इन्द्रियनिग्रह) प्राप्त करना।
रमा एकादशी का व्रत इन तपों का समन्वय है, जो व्यक्ति को शुद्ध सात्विक अवस्था में लाता है और उसे आत्म-साक्षात्कार के लिए तैयार करता है।
भक्ति योग और श्री हरि का आश्रय (Chapter 9, 12)
रमा एकादशी में भगवान विष्णु और माँ लक्ष्मी की पूजा केंद्रीय है। यह भक्ति योग का सीधा प्रयोग है।
गीता, अध्याय 9, श्लोक 26:
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥
अर्थात: जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से एक पत्ता, एक फूल, एक फल, अथवा थोड़ा-सा जल ही अर्पित करता है, उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का वह भक्तिपूर्वक अर्पित किया हुआ पदार्थ मैं खा लेता हूँ।
एकादशी का उपवास, जल और फल का सेवन, तथा समर्पण का भाव इसी भक्ति योग को दर्शाता है। यह दर्शाता है कि ईश्वर को महंगे प्रसाद की नहीं, बल्कि शुद्ध हृदय से किए गए समर्पण की आवश्यकता है।
महाभारत और धर्म की स्थापना
महाभारत का मुख्य उद्देश्य धर्म की स्थापना है। रमा एकादशी की कथा (राजा मुचुकुन्द का कठोर नियम और शोभन द्वारा धर्म की रक्षा) यह सिखाती है कि धर्म का पालन जीवन के सुख-दुख से परे है। युधिष्ठिर द्वारा भगवान कृष्ण से एकादशी के बारे में पूछना यह दर्शाता है कि पांडवों के लिए भी व्रत और अनुष्ठान धर्म-पालन का अभिन्न अंग थे।
वेदों और उपनिषदों में व्रत और तप की अवधारणा
1. वेदों में तप (Tapas in Vedas)
ऋग्वेद और अथर्ववेद में तप को ब्रह्मांड के निर्माण और सत्य की प्राप्ति का माध्यम बताया गया है।
- तपस की शक्ति: तपस्या को वह शक्ति माना गया है जिसके द्वारा ऋषि-मुनियों ने ज्ञान प्राप्त किया और स्वयं देवताओं ने भी जगत के हित के लिए तप किया। रमा एकादशी का उपवास, ज्ञान और मोक्ष की ओर अग्रसर होने के लिए की गई स्वैच्छिक तपस्या है, जो इंद्रियों को वश में करती है।
2. उपनिषदों में अन्न और प्राण (Food and Life Force)
तैत्तिरीय उपनिषद् और छान्दोग्य उपनिषद् में अन्न को ब्रह्म के रूप में देखा गया है (अन्नं ब्रह्म)। उपवास के द्वारा अन्न का त्याग करना, आत्मिक शक्ति को प्राण (जीवन शक्ति) की ओर मोड़ना है।
- प्राण और मन का संबंध: उपनिषद् सिखाते हैं कि भोजन से मन बनता है (जैसा अन्न, वैसा मन)। एकादशी का व्रत, एक विशेष अवधि के लिए अन्न का त्याग करके, मन को सात्विक और नियंत्रित करने का अभ्यास है, जो आध्यात्मिक साधना के लिए अत्यंत आवश्यक है। यह आत्म-नियंत्रण का प्राथमिक पाठ है।
रामचरितमानस और ‘रमा’ का समन्वय: मर्यादा और भक्ति
रमा एकादशी नाम में ‘रमा’ शब्द माँ लक्ष्मी को समर्पित है, जो भगवान विष्णु की सहचरी और शक्ति हैं। विष्णु के अवतार मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम हैं, जिनकी कथा रामचरितमानस में वर्णित है।
1. रमा (लक्ष्मी) और राम का तादात्म्य
रामचरितमानस में भगवान राम की भक्ति और उनके द्वारा स्थापित मर्यादा सर्वोपरि है। लक्ष्मी जी (रमा) शक्ति, ऐश्वर्य और धर्म की सहचरी हैं।
- भक्ति का सिद्धांत: रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने नवधा भक्ति का वर्णन किया है। एकादशी का व्रत इसी नवधा भक्ति (विशेष रूप से ईश्वर की सेवा और नाम स्मरण) को तीव्र करने का एक माध्यम है। रमा एकादशी पर श्री हरि का स्मरण करना, रामचरितमानस की भक्ति परंपरा के अनुरूप है।
- मर्यादा का पालन: राजा मुचुकुन्द द्वारा एकादशी व्रत के नियम का कठोरता से पालन करना, और शोभन द्वारा प्राण गंवाकर भी धर्म की मर्यादा बनाए रखना, रामचरितमानस के मर्यादा पुरुषोत्तम के सिद्धांत से प्रेरित है। धर्म के लिए व्यक्तिगत कष्ट सहना, राम के चरित्र का केंद्रीय भाव है।
2. कार्तिक मास का महत्व
कार्तिक मास, जिसमें रमा एकादशी आती है, स्वयं भगवान राम की आराधना के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। दीपावली, जो रमा एकादशी के कुछ दिन बाद आती है, भगवान राम के अयोध्या लौटने का उत्सव है। इस प्रकार, रमा एकादशी व्रत कार्तिक मास में राम और रमा (सीता/लक्ष्मी) की संयुक्त कृपा प्राप्त करने का आधार बनता है।
रमा एकादशी की पूजा विधि और फलश्रुति
रमा एकादशी का व्रत विधिपूर्वक करने पर कथा में वर्णित सभी फल प्राप्त होते हैं।
1. पूजा विधि का सार
- दशमी तिथि: सूर्यास्त से पूर्व केवल एक बार सात्विक (बिना प्याज, लहसुन, मांसाहार) भोजन करना। सूर्यास्त के बाद भोजन का त्याग।
- एकादशी तिथि (17 अक्टूबर 2025):
- प्रातः काल स्नान कर स्वच्छ, विशेष रूप से पीले वस्त्र धारण करना।
- पूजा स्थल को पवित्र कर भगवान विष्णु और माँ लक्ष्मी की प्रतिमा स्थापित करना।
- संकल्प: व्रत का विधिवत संकल्प लेना।
- पूजा: चंदन, तुलसी पत्र (विष्णु को अतिप्रिय), पीले पुष्प, धूप, दीप और फल अर्पित करना।
- मंत्र जाप: ॐ नमो भगवते वासुदेवाय या ॐ श्री लक्ष्मी नारायणाय नमः का निरंतर जाप।
- व्रत कथा: रमा एकादशी की व्रत कथा का श्रवण या पाठ करना।
- रात्रि जागरण: रात्रि में जागरण कर भजन-कीर्तन करना।
- द्वादशी तिथि (18 अक्टूबर 2025):
- शुभ पारण मुहूर्त (सूर्योदय के बाद) में ब्राह्मण को भोजन कराकर दान करना।
- पारण के रूप में सात्विक भोजन (अन्न) ग्रहण कर व्रत पूर्ण करना।
2. व्रत की फलश्रुति (Phalashruti)
पद्म पुराण के अनुसार, रमा एकादशी का व्रत करने वाला व्यक्ति:
- समस्त पापों से मुक्ति पाता है, चाहे वे ज्ञात हों या अज्ञात।
- वाजपेयी यज्ञ (अश्वमेध यज्ञ से भी श्रेष्ठ) के बराबर पुण्य प्राप्त करता है।
- जीवन में धन, ऐश्वर्य और सुख-शांति प्राप्त करता है।
- मृत्यु के पश्चात विष्णु लोक (परमधाम) को प्राप्त होता है।
- यह व्रत विशेष रूप से अखंड सौभाग्य और धन-समृद्धि के लिए फलदायक है, क्योंकि यह सीधे माँ लक्ष्मी (रमा) से जुड़ा हुआ है।
धर्म, तप और मोक्ष का समन्वय
रमा एकादशी केवल एक धार्मिक उपवास नहीं है; यह वैदिक तप, पौराणिक कथा, महाभारत के संवाद और भगवद गीता के दर्शन का एक अद्भुत समन्वय है। युधिष्ठिर द्वारा पूछा गया प्रश्न “कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का क्या नाम है?” साधारण नहीं है, बल्कि यह सनातन धर्म की उस जिज्ञासा को दर्शाता है जो मनुष्य को कर्मबंधन से मुक्ति और आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाती है।
यह व्रत सिखाता है कि धर्म के मार्ग पर प्राणों का त्याग भी स्वीकार्य है, जैसा कि शोभन ने किया, और भक्ति के द्वारा अर्जित पुण्य (चन्द्रभागा का पुण्य) न केवल अपने लिए बल्कि अपने प्रियजनों के लिए भी अविनाशी फल प्रदान करता है।
TKN Prime News की यह विस्तृत रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि 16/17 अक्टूबर 2025 को मनाई जाने वाली रमा एकादशी, सनातन परंपरा में सुख, समृद्धि और मोक्ष की कुंजी है, जिसे शास्त्रों के प्रमाण और दार्शनिक आधारों पर अत्यंत पवित्र माना गया है।
।। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।





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