सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के विवेकाधिकार पर लगाई समय की सीमा
भारत के संविधान में संघीय ढांचे को मजबूत करने की दिशा में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। अब राष्ट्रपति भी विधेयकों पर अनिश्चितकालीन निर्णय नहीं ले सकते। यह निर्णय तमिलनाडु के मामले में आया, जहां राज्यपाल आर. एन. रवि ने 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजा था। इन विधेयकों को राज्य विधानसभा ने दोबारा पारित कर पुनः भेजा था, लेकिन राष्ट्रपति की ओर से कोई निर्णय नहीं आया। सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रक्रिया को त्रुटिपूर्ण बताया और स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति के पास “पूर्ण वीटो” का अधिकार नहीं है। उन्हें समयसीमा में निर्णय लेना होगा।
तीन महीने में लेना होगा निर्णय, वरना देना होगा कारण
कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत स्पष्ट किया कि विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने के बाद तीन महीने के भीतर निर्णय लिया जाना चाहिए। यदि राष्ट्रपति को किसी कारणवश देरी करनी हो, तो उन्हें “ठोस और स्पष्ट कारण” बताने होंगे और राज्य को इसकी सूचना देनी होगी। यह पहली बार है जब सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के विवेक पर समय की सीमा तय की है, जिससे वर्षों तक निर्णय लंबित रहने की परंपरा पर रोक लग सके।
सरकारिया व पुंछी आयोग की सिफारिशों को माना आधार
फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने 2016 में गृह मंत्रालय द्वारा जारी दिशानिर्देशों और सरकारिया तथा पुंछी आयोग की सिफारिशों का उल्लेख किया। इन सिफारिशों में पहले ही यह सुझाव दिया गया था कि राष्ट्रपति को विधेयकों पर समयबद्ध निर्णय लेना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि “समयसीमा तय करना तर्कसंगत और संविधान की संघीय भावना के अनुरूप है।” इससे राज्य सरकारों को स्पष्टता मिलेगी और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में गतिशीलता बनी रहेगी।
राज्यपाल और राष्ट्रपति की भूमिका पर संवैधानिक स्पष्टीकरण
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि राज्यपाल किसी विधेयक पर असहमति जता चुके हैं और उसे विधानसभा ने फिर से पारित किया है, तो राज्यपाल को उसे स्वीकृति देनी होगी। हालांकि, राष्ट्रपति के मामले में ऐसा कोई सीधा संवैधानिक प्रावधान नहीं है, लेकिन जब नीति संबंधी ऐसे विषय हों जिनका राष्ट्रीय प्रभाव हो, तब राष्ट्रपति को भी सीमाओं में रहकर काम करना होगा। यह फैसला यह भी दर्शाता है कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग अनिश्चितकाल तक चुप नहीं रह सकते।
लोकतंत्र और संघीय ढांचे की जीत
यह फैसला न केवल विधायी प्रक्रियाओं में पारदर्शिता लाएगा, बल्कि केंद्र-राज्य संबंधों में संतुलन बनाए रखने में भी मदद करेगा। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यह साफ कर दिया कि “न्यायपालिका शक्तिहीन नहीं है” और लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों की रक्षा के लिए समय-सीमा जैसी शर्तें जरूरी हैं। अब कोई भी संवैधानिक पदाधिकारी जनता की इच्छाओं को लंबित नहीं रख सकेगा।