चुनावी बॉन्ड पर कांग्रेस नेता जया ठाकुर, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और NGO एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स समेत चार लोगों ने याचिकाएं दाखिल की। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि चुनावी बॉन्ड राजनीतिक दलों को दी गई फंडिंग की पारदर्शिता को प्रभावित करता है। यह सूचना के अधिकार का भी उल्लंघन करता है।
चुनावी बॉन्ड पंजीकृत राजनीतिक दलों को चंदा देने के लिए एक वित्तीय साधन है। इसे विशेष रूप से राजनीतिक दलों को योगदान देने के लिए डिजाइन किया गया था।
चुनावी बॉन्ड की घोषणा पहली बार 2017 के बजट सत्र में की गई थी; इसे बाद में जनवरी 2018 में वित्त अधिनियम 2017, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951, आयकर अधिनियम 1961 और कंपनी अधिनियम 2013 में संशोधन के माध्यम से राजनीतिक फंडिंग के स्रोत के रूप में अधिसूचित किया गया था।
चुनावी बॉन्ड भारतीय स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया और इसकी नामित शाखों द्वारा जारी किए जाते हैं और ₹1000 ₹10000 ,₹1लाख, 10लाख रुपए और एक करोड़ रुपए के कई मूल वर्ग में बेचे जाते हैं।
दानकर्ता, चाहे व्यक्ति हो या कंपनियां इन बॉन्ड को खरीद सकते हैं और दानदाताओं की पहचान बैंक और प्राप्तकर्ता राजनीतिक दलों दोनों के लिए गोपनीय रहती थी, इसके द्वारा खरीदे जाने वाले चुनावी बॉन्ड की संख्या की भी कोई सीमा नहीं थी।
चुनावी बॉन्ड के माध्यम से धन प्राप्त करने की पात्रता केवल लोक प्रतिनिधि अधिनियम 1951 की धारा 29 ए के तहत पंजीकृत राजनीतिक दल और जिन्होंने लोकसभा या राज्य विधानसभा के पिछले चुनाव में डाले गए वोटो का एक प्रतिशत से कम वोट हासिल नहीं किया है तो वह चुनावी बॉन्ड हासिल करने के पात्र हैं।
तथा साथ ही राजनीतिक दलों को चुनाव आयोग को भी बताना होगा कि उन्हें कितना धन चुनावी बॉन्ड के माध्यम से मिला है।
चुनावी बॉन्ड जारी होने की तारीख से 15 दिनों तक के लिए वैध होता है, और बैंक इस पर ब्याज भी नहीं देती है। यदि कोई राजनीतिक दल इस समय सीमा के अंदर बॉन्ड का भुगतान नहीं कर पाता है तो यह बॉन्ड का भुगतान प्रधानमंत्री वेलफेयर फंड में चला जाता है।
चुनावी बॉन्ड में बहुत सी खामियां थी, जैसे- चुनावी बॉन्ड, राजनीतिक दलों को दी जाने वाली दान राशि है जो दानदाताओं और प्राप्तकर्ताओं की पहचान को गुमनाम रखती है जो जानने का अधिकार अर्थात सूचना के अधिकार से समझौता कर सकते हैं जो संविधान के अनुच्छेद 19 का हनन होगा।
तथा दानदाताओं के डेटा तक सरकारी पहुंच के चलते गुमनामी से समझौता किया जा सकता है, इसका तात्पर्य यह है कि सत्ता में मौजूद सरकार इस जानकारी का लाभ उठा सकती है जो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव को बाधित कर सकता है। तथा इसके अतिरिक्त घोर पूंजीवाद और काले धन के उपयोग का खतरा भी हो सकता है।
इन्हीं समस्याओं को ध्यान में रखकर सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड योजना को रद्द कर दिया है। और शीर्ष अदालत ने याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा कि काले धन पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से सूचना के अधिकार का उल्लंघन उचित नहीं है; चुनावी बांड योजना, सूचना के अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन है। राजनीतिक दालों के द्वारा फंडिंग की जानकारी उजागर न करना संविधान के मूल उद्देश्य के विपरीत है।
ऐसा वक्तव्य देते हुए कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड को तुरंत रोकने का आदेश दिया है। साथ ही, अदालत ने निर्देश जारी कर कहा कि एसबीआई चुनावी बॉन्ड के माध्यम से अब तक किए गए योगदान के सभी विवरण को 31 मार्च तक चुनाव आयोग को दे। तथा साथ ही कोर्ट ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि वह 13 अप्रैल तक अपनी वेबसाइट पर एसबीआई द्वारा दी गई जानकारी का साझा करें।