साल 2015, जून की एक दोपहर। लवाना गांव का एक युवा — लक्ष्मण पंद्रे — रोजगार की आस में घर से निकला था, पर वह लौट कर नहीं आया। परिवार वालों के लिए वह एक गुमनाम कहानी बन गया। समय के साथ उम्मीदें भी ठंडी पड़ गईं। पर किसे पता था कि यह कहानी खत्म नहीं हुई, बल्कि एक नए मोड़ की प्रतीक्षा कर रही थी! दस साल तक कोई खबर नहीं। न चिट्ठी, न फ़ोन, न कोई सुराग। और फिर, एक दिन… इंस्टाग्राम पर एक मैसेज ने सन्नाटा तोड़ा।
9 जून 2015 को लक्ष्मण हैदराबाद जाने के इरादे से निकला, लेकिन पांढुर्णा स्टेशन पर एक गलत ट्रेन में चढ़ गया। वह ट्रेन सीधा बेंगलुरु जा रही थी। न भाषा आती थी, न कोई जान-पहचान, न जेब में ज्यादा पैसे। बेंगलुरु जैसे महानगर में एक देहाती युवक पूरी तरह असहाय था। पर हार नहीं मानी। कई दिनों की भटकन के बाद उसे एक होटल में बर्तन धोने का काम मिल गया। यहीं से शुरू हुआ एक लंबा और कठिन संघर्ष — जहां हर दिन एक परीक्षा थी, हर पल एक जंग। धीरे-धीरे उसने कन्नड़ सीखी, आधार कार्ड बनवाया और बेंगलुरु को ही अपनी नई पहचान बना लिया।
कहते हैं, तक़दीर जब पलटती है तो रास्ते खुद-ब-खुद बन जाते हैं। लक्ष्मण ने हाल ही में एक मोबाइल खरीदा और इंस्टाग्राम पर अकाउंट बनाया। एक दिन उसे अपनी भतीजी वैशाली का नाम याद आया — उसने प्रोफाइल सर्च किया और मिल भी गई। एक सिंपल-सा मैसेज — और उसी ने बदल दी ज़िंदगी की कहानी। शुरू में परिवार को विश्वास नहीं हुआ, लेकिन बातचीत आगे बढ़ी तो सच्चाई सामने आई — वह वाकई लक्ष्मण था। जो दस साल पहले गुम हो गया था, वह अब सामने था… बस कुछ किलोमीटर दूर, एक ट्रेन की दूरी पर।
परिवार ने तुरंत पांढुर्णा पुलिस को सूचना दी। थाना प्रभारी अजय मरकाम और एएसआई देवेंद्र कुमरे ने इंसानियत की मिसाल पेश की। बेंगलुरु जाकर लक्ष्मण को ढूंढ निकाला और सकुशल गांव वापस लाए। जब लक्ष्मण अपने घर पहुंचा, उसकी मां ने उसे गले से लगा लिया — आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा। एक दशक का इंतजार, एक मां की पीड़ा, और एक बेटे की वापसी — ये सिर्फ दृश्य नहीं थे, बल्कि भावनाओं की गहराइयों से निकली चीखें थीं, जिन्हें शब्दों में बयां कर पाना मुश्किल था।
:





Total Users : 13306
Total views : 32223