Friday, December 5, 2025

MP News: इंदौर के सांघवी गांव में दलित दूल्हे के मंदिर प्रवेश को लेकर विवाद, पुलिस की मौजूदगी में हुआ समाधान

क्या आप कल्पना कर सकते हैं, उस भारत में जहां संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर ने हर नागरिक को बराबरी का अधिकार दिलाया — उसी भारत में, उनकी जन्मस्थली से महज कुछ किलोमीटर दूर एक दलित दूल्हे के मंदिर प्रवेश पर विवाद खड़ा हो जाए? ये कोई फिल्मी कहानी नहीं, बल्कि सच्चाई है मध्य प्रदेश के इंदौर ज़िले के सांघवी गांव की, जहाँ 14 अप्रैल को अंबेडकर जयंती के दिन एक ऐसा दृश्य सामने आया जिसने न सिर्फ गांव को, बल्कि पूरे प्रदेश को जातिगत सोच पर सवाल करने को मजबूर कर दिया।

इस पूरे घटनाक्रम की शुरुआत हुई जब बलाई समुदाय से ताल्लुक रखने वाला दूल्हा अपनी बारात के साथ सांघवी गांव के प्रसिद्ध श्रीराम मंदिर में पूजा के लिए पहुंचा। लेकिन मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश को लेकर दोनों पक्षों के बीच बहस छिड़ गई। जहां दूल्हे और उसके परिजन का मानना था कि विवाह से पूर्व मंदिर में दर्शन करना शुभ होता है, वहीं मंदिर के कुछ स्थानीय लोग इस बात को लेकर आपत्ति जता रहे थे कि गर्भगृह में केवल पुजारी को ही जाने की परंपरा है। सोशल मीडिया पर वायरल हुए वीडियो में साफ देखा जा सकता है कि दूल्हा बारात के साथ मंदिर के बाहर खड़ा है, माहौल तनावपूर्ण है, और पुलिस की मौजूदगी में स्थिति को नियंत्रित करने की कोशिश की जा रही है।

बवाल को बढ़ते देख, पुलिस ने प्रेस नोट जारी कर स्थिति स्पष्ट करने की कोशिश की। बेटमा थाना क्षेत्र की प्रभारी मीना कर्णावत ने कहा, “दूल्हे को मंदिर में प्रवेश से किसी ने भी नहीं रोका। गर्भगृह में केवल पुजारी की एंट्री परंपरागत रूप से होती है। बाकी सभी भक्तों ने मंदिर के बाहरी परिसर में दर्शन किए।” लेकिन सवाल यहां सिर्फ मंदिर के नियमों का नहीं, बल्कि उस सोच का है जो आज भी कुछ समुदायों को अंदर आने लायक नहीं समझती। जब देशभर में समावेशिता और समानता की बात होती है, तो फिर ऐसे दोहरे मानदंड क्यों?

अखिल भारतीय बलाई महासंघ के अध्यक्ष मनोज परमार ने इस घटना पर तीखी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा कि आज भी ग्रामीण भारत में बलाई समुदाय जैसे अनुसूचित जाति वर्ग के लोगों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उन्होंने बताया कि करीब दो घंटे तक चली गहमागहमी के बाद, पुलिस की मध्यस्थता में दूल्हा मंदिर में दर्शन कर सका। यह केवल मंदिर में दर्शन की बात नहीं थी, बल्कि उस आत्मसम्मान की भी थी जिसे संविधान ने मान्यता दी है, लेकिन समाज अब भी स्वीकार नहीं कर पा रहा।

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