जनता के वोट की ताकत को पवित्र मानने वाली हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जब कोई चुना हुआ प्रतिनिधि वोट न देने पर अगले जन्म का जानवर बनने की चेतावनी दे, तो सवाल उठते हैं। क्या ये बयान धर्म की आड़ में डर फैलाने की कोशिश नहीं है? “वोट बेचना पाप है, शराब और साड़ी के बदले जो वोट बेचते हैं, उनका अगला जन्म जानवर के रूप में होगा,” — यह वक्तव्य उस महिला ने दिया है, जो संविधान की शपथ लेकर मंत्री पद पर रह चुकी हैं। बीजेपी को वोट देना, उन्होंने देशभक्ति और संस्कृति से जोड़ दिया, और बाकी सबको पाप की श्रेणी में रख दिया।
सबसे चौंकाने वाली बात ये रही कि उषा ठाकुर ने न केवल ये कहा कि उनका भगवान से सीधा संवाद होता है, बल्कि यह भी जताया कि उन्हीं के मुताबिक बीजेपी को वोट देना ‘धर्मोचित’ है। सवाल यह है कि क्या सार्वजनिक मंच से ऐसे व्यक्तिगत और अति-धार्मिक दावे करना एक जिम्मेदार नेता को शोभा देता है? क्या वे राज्य के हर उस मतदाता को डराना चाहती हैं जो बीजेपी को वोट नहीं देना चाहता? इस तरह की बातें न केवल जनता को गुमराह करती हैं, बल्कि लोकतंत्र की जड़ों में भी धीरे-धीरे ज़हर घोलती हैं।
विश्लेषकों का मानना है कि उषा ठाकुर का यह बयान इस बात का संकेत हो सकता है कि जमीनी स्तर पर समर्थन कमजोर हो रहा है और अब वोट पाने के लिए धार्मिक भय और आत्मघोषित दैवीय संपर्क की जरूरत महसूस की जा रही है। यह बयान चुनाव आयोग की आचार संहिता और भारत के संविधान की आत्मा — “वोट का अधिकार” — दोनों का सीधा उल्लंघन है।
उषा ठाकुर का बयान न केवल आपत्तिजनक है, बल्कि देश के हर जागरूक नागरिक के लिए चिंतन का विषय है। क्या हमारे नेता धर्म का सहारा लेकर वोट मांगेंगे या विकास और नीतियों के दम पर? क्या यह जनता को अपमानित करने का तरीका नहीं है — उन्हें जानवर बनने की धमकी देना?





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