क्या किसी नाबालिग लड़की के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश को रेप की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए? क्या कानून का अर्थ केवल उसकी लिखी हुई भाषा से तय किया जाना चाहिए या फिर उसका मर्म भी देखा जाना चाहिए? यह सवाल उठ खड़ा हुआ है इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक हालिया फैसले से, जिसमें तीन आरोपियों को रेप की कोशिश के आरोप से राहत देते हुए उनके खिलाफ लगाए गए कुछ धाराओं को हटाने का आदेश दिया गया है। यह फैसला समाज में स्त्रियों की सुरक्षा और न्याय प्रणाली की व्याख्या को लेकर एक नई बहस को जन्म दे सकता है।
यह मामला उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले के पटियाली थाना क्षेत्र का है, जहां 10 नवंबर 2021 की शाम पांच बजे एक महिला अपनी 14 वर्षीय बेटी के साथ कहीं जा रही थी। रास्ते में पवन, आकाश और अशोक नामक तीन युवकों ने लड़की को घर छोड़ने का बहाना बनाकर अपनी बाइक पर बैठा लिया। एफआईआर के अनुसार, आरोपियों ने रास्ते में एक पुलिया के पास बाइक रोकी और लड़की के साथ जबरदस्ती करने लगे। शिकायत में दर्ज विवरण के मुताबिक, उन्होंने लड़की के स्तन पकड़े, उसके पायजामे का नाड़ा तोड़ा और उसे पुलिया के नीचे खींचने की कोशिश की। तभी लड़की की चीख-पुकार सुनकर वहां भीड़ जमा हो गई, जिससे आरोपी मौके से फरार हो गए।
घटना के बाद पुलिस ने आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 376 (बलात्कार) और पॉक्सो एक्ट की धारा 18 (अपराध करने के प्रयास) के तहत मामला दर्ज किया था। निचली अदालत ने भी इन्हीं धाराओं में आरोपियों के खिलाफ समन जारी किया। लेकिन आरोपियों ने इस फैसले को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी। हाईकोर्ट ने इस मामले में सुनवाई करते हुए अपना फैसला सुनाया और कहा कि केवल स्तन पकड़ने, पायजामे का नाड़ा तोड़ने और पुलिया के नीचे खींचने का प्रयास करने को बलात्कार की कोशिश नहीं माना जा सकता। अदालत ने ट्रायल कोर्ट को आदेश दिया कि वह आरोपियों के खिलाफ छेड़छाड़ और पॉक्सो एक्ट की दूसरी धाराओं के तहत समन जारी करे।
इस फैसले ने समाज में एक बड़ी बहस को जन्म दिया है। न्यायालय की दलील यह थी कि किसी भी घटना को रेप की कोशिश के रूप में तब देखा जाना चाहिए जब उसमें स्पष्ट रूप से बलात्कार करने की मंशा दिखाई दे। अदालत ने यह भी कहा कि इन हरकतों से यह साबित नहीं होता कि आरोपी लड़की का बलात्कार करने ही वाले थे। लेकिन क्या यह व्याख्या समाज में एक गलत संदेश नहीं भेजेगी? क्या इससे ऐसे अपराधियों को बढ़ावा नहीं मिलेगा, जो कानून की पेचीदगियों का फायदा उठाकर बच निकलने की कोशिश करते हैं?
यह फैसला ऐसे समय आया है जब देश में महिलाओं और नाबालिग लड़कियों की सुरक्षा को लेकर गंभीर चिंताएं हैं। समाज में पहले से ही महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों को लेकर आक्रोश है और इस फैसले से कई लोगों में निराशा बढ़ सकती है। हालांकि, कानून की अपनी सीमाएं होती हैं और अदालत को उसके शब्दों के आधार पर निर्णय देना होता है, लेकिन क्या ऐसे फैसले पीड़िताओं को न्याय दिला पाते हैं? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है, जिसका उत्तर आने वाले समय में सामाजिक और कानूनी बहस के रूप में सामने आएगा।