पश्चिम बंगाल में एक बार फिर सांप्रदायिक हिंसा ने राज्य की कानून-व्यवस्था और सरकार की संवेदनशीलता पर गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं। अप्रैल 2025 में मुर्शिदाबाद जिले के सुजीपाड़ा, धूलियन, जंगीपुर और शमशेरगंज जैसे क्षेत्रों में उग्र भीड़ ने हिन्दू समुदाय के घरों, दुकानों और होटलों को आग के हवाले कर दिया। स्थिति इतनी भयावह हो गई कि सैकड़ों हिन्दू परिवारों को भगवती नदी पार कर मालदा में शरण लेनी पड़ी।
एक चश्मदीद का कहना है, “हमारे घर पर पत्थरबाज़ी हुई, दुकान जला दी गई, और महिलाओं को धमकी दी गई कि अगर हमने इलाका नहीं छोड़ा तो अंजाम बुरा होगा।” ऐसी घटनाएँ न केवल मानवता के लिए शर्मनाक हैं, बल्कि शासन के खोखले दावों की भी पोल खोलती हैं।
📊 पिछले वर्षों की घटनाएँ और आँकड़े:
• 2022: रामनवमी जुलूस पर हमले के बाद हुगली और हावड़ा में तनाव
• 2023: बसीरहाट में सांप्रदायिक हिंसा, कई मंदिरों और दुकानों को नुकसान
• 2024: दुर्गा पूजा के दौरान बर्धमान और बीरभूम में विवाद, पुलिस की निष्क्रियता सवालों के घेरे में
• 2021: नदिया जिले में हिन्दू त्योहार के दौरान आगजनी और दंगे
• 2020: उत्तर दिनाजपुर में धार्मिक स्थल पर हमला, तनाव के बाद निषेधाज्ञा लागू
ये घटनाएं कोई संयोग नहीं बल्कि एक नियमित पैटर्न की ओर इशारा करती हैं जिसमें राज्य प्रशासन की निष्क्रियता, तुष्टिकरण की राजनीति और कट्टरपंथी तत्वों को खुला संरक्षण मिलता रहा है।
“साप्ताहिक आवाज़” नामक क्षेत्रीय समाचार पत्र ने रिपोर्ट किया कि, “मालदा में शरण लेने वाले अधिकतर परिवारों ने कहा कि पुलिस ने मदद मांगने पर कहा – ‘ऊपर से आदेश नहीं है’।”
धूलियन और जंगीपुर जैसे सीमावर्ती क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी बहुल है और वहाँ कई स्थानों पर हिन्दू समुदाय अल्पसंख्यक में है। यह विस्थापन महज़ भय की वजह से नहीं बल्कि एक नियोजित रणनीति प्रतीत होती है — स्थानीय हिन्दू व्यवसायों को खत्म करना, सामाजिक संतुलन को बिगाड़ना और वोट बैंक को मजबूत करना।
मूल कारण क्या हैं?
- तुष्टिकरण की राजनीति: राज्य सरकार वोट बैंक की राजनीति के चलते एक विशेष समुदाय के खिलाफ कार्रवाई से बचती रही है।
- राजनीतिकरण ऑफ पुलिस: पुलिस स्वतंत्र रूप से कार्रवाई करने में असमर्थ है और तृणमूल कांग्रेस के दबाव में काम करती है।
- अवैध घुसपैठ: बांग्लादेश से सटे क्षेत्रों में अवैध घुसपैठ ने सामाजिक संतुलन को बिगाड़ दिया है। NRC और CAA जैसे मुद्दों पर राज्य सरकार की अड़ियल नीति ने स्थिति को और जटिल बना दिया है।
- कट्टरपंथियों को संरक्षण: PFI और SDPI जैसे संगठनों की सक्रियता के बावजूद कोई निर्णायक कार्रवाई नहीं की गई। इसके विपरीत, इन संगठनों को स्थानीय नेता संरक्षण देते नजर आते हैं।
- इंटेलिजेंस फेल्योर: बार-बार की घटनाओं के बावजूद राज्य खुफिया तंत्र कोई ठोस अलर्ट जारी नहीं कर पा रहा है। यह प्रशासकीय विफलता का स्पष्ट संकेत है।
क्या ममता सरकार पर लगे ताला?
इन स्थितियों को देखते हुए संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन की माँग अब केवल राजनीतिक नहीं बल्कि नैतिक रूप से भी उचित प्रतीत होती है। यदि सरकार संविधान के अनुरूप कार्य करने में असफल है और राज्य में लगातार भय और असुरक्षा का वातावरण बना हुआ है, तो केंद्र सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए।
विपक्ष की चुप्पी — ‘सेलेक्टिव सेक्युलरिज्म’ का भंडाफोड़
कांग्रेस, वामपंथी दल, TMC समर्थित बुद्धिजीवी और तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ता — सभी इस बर्बरता पर चुप हैं। यही वर्ग जब किसी भाजपा-शासित राज्य में कोई छोटा विवाद होता है तो दिल्ली की सड़कों पर मार्च निकालते हैं। यह दोहरा मापदंड भारत के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को खोखला करता है।
क्या केंद्र सरकार को दखल देना चाहिए?
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC), राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, और सुप्रीम कोर्ट को स्वतः संज्ञान लेकर राज्य सरकार से जवाब माँगना चाहिए। पीड़ितों को सुरक्षा, पुनर्वास और न्याय मिलना ही चाहिए। साथ ही केंद्र सरकार को यह स्पष्ट करना होगा कि हिंसा किसी भी राज्य में हो — चाहे वह पश्चिम बंगाल हो या मणिपुर, सभी नागरिकों को बराबर सुरक्षा मिलनी चाहिए।





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