Friday, December 5, 2025

आरक्षण की मलाई: गरीब भूखा रह गया, अमीर के पेट में हलवा उतर गया-Journalist Vijay

आरक्षण की मलाई: गरीब भूखा रह गया, अमीर के पेट में हलवा उतर गया
यह ऐसा लेख है जिसमें न्याय की बात है, नेताओं की चालाकी है, और एक गरीब सवर्ण का दर्द… जिसे कोई नहीं सुनता।
By Journalist Vijay – The Khabardar News


फिल्म का नाम: “आरक्षण: लाइफटाइम ड्रिप”

भारत की राजनीति की सबसे लंबी चलाई गई स्क्रिप्ट कौन-सी है?

न रामराज्य — वो तो राम भगवान के बाद भी नहीं आया।
न गांधी का स्वराज्य — गांधीजी ने कहा था “स्वराज घर से शुरू होता है”, पर अब घर तो बिल्कुल बाहर है, बाहरी दुनिया में।
न नेहरू का समाजवाद — नेहरू जी के सपने में तो हर बच्चे को एक लेखक बनने का मौका मिलता, अब तो लेखक भी अपनी नौकरी के लिए आरक्षण का दरवाज़ा खटखटा रहे हैं।
न अटल जी का विकास — अटल जी ने कहा था “अर्थव्यवस्था का आधार बुद्धि है”, लेकिन आज बुद्धि का आधार आरक्षण है।

तो सवाल फिर वही —
कौन-सी स्क्रिप्ट इतनी लंबी चल रही है कि जब तक बच्चे पैदा हो रहे हैं, तब तक उसका अंत नहीं हो रहा?

उत्तर: आरक्षण की राजनीति।

यह फिल्म हर चुनाव में रिलीज होती है।
हर बार नए डायलॉग — “हमने आरक्षण दिया!”, “अब बढ़ाएंगे!”, “इसे छीनने वाले दुश्मन हैं!”
लेकिन हीरो-हीरोइन? वही।
नेता और वोट बैंक।

और गरीब?
अरे, गरीब तो इस फिल्म में सिर्फ़ एक्स्ट्रा है।
भीड़ का हिस्सा।
उसकी डायलॉग डबिंग कोई और कर देता है।
वो बोलता है — “मैं भी तो आरक्षण का हक़ रखता हूँ!”
लेकिन डबिंग में आता है — “मैं तो बस एक वोट हूँ, बस एक नारा हूँ, बस एक रैली का हिस्सा हूँ।”


डॉ. अंबेडकर का दवाई का नुस्खा… और हमारा लाइफटाइम ड्रिप

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने आरक्षण को एक उपचार माना था।
जैसे डॉक्टर कहे — “पांच दिन तक दवा लो, फिर ठीक हो जाओगे।”

लेकिन हमने क्या किया?

हमने उस दवा को लाइफटाइम ड्रिप बना दिया।
अब जब भी बीमारी आती है — गरीबी, अशिक्षा, भेदभाव — तो हम कहते हैं:
“अरे! ये तो आरक्षण की दवा का असर नहीं हुआ। और दो बूंद और डाल दो!”

और इस ड्रिप का नल बंद नहीं होता।
बल्कि अब ये ड्रिप ऐसा बन गया है कि —
जो भी इसके नल के पास बैठ जाए, उसे पूरा बाल्टी भर दिया जाता है — और जो भूखा है, उसे सिर्फ़ एक बूंद देकर कह दिया जाता है — “अब तो तुम्हारा हक़ पूरा हो गया!”

असली उद्देश्य था —
सदियों से वंचित, दलित, शोषित वर्ग को मुख्यधारा में लाना।

75 साल बाद —
गाँव का गरीब दलित आज भी खेत मालिक की डाँट खाता है।
आदिवासी आज भी जंगल और खदान के बीच पिस रहा है।
पिछड़ा वर्ग का गरीब आज भी दिहाड़ी में जिंदगी काटता है।

तो सवाल उठता है —
आरक्षण से किसका भला हुआ?

क्या उस बच्चे का जिसकी माँ चाय की दुकान पर 14 घंटे काम करती है, और उसके पास घर में बिजली नहीं, पानी नहीं, किताबें नहीं?
क्या उस बच्चे का जिसके पिता ने 30 साल तक रेलवे में ब्रिज का काम किया, और अब उसके हाथ में एक फोन है जिसमें 1% बैटरी है?

या क्या उस बच्चे का जिसके पिता ने आरक्षण से IAS बना, अब उसकी माँ ने एक नौकरी और बेटी को एक और नौकरी, और बेटे को एक MBA — और अब वो बच्चा अमेरिका में है, और अपने बेटे को नाम रखा है — ‘आरक्षण’?


क्रीमी लेयर का खेल: मलाई किसने खाई?

आरक्षण की मलाई किसने खाई?

गरीब ने?
बिल्कुल नहीं।

आरक्षण की मलाई खाई —

  • वे SC/ST परिवार जो 40-50 साल से शहरों में पढ़े-लिखे हैं।
  • वे OBC परिवार जिनके बच्चे अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ते हैं, विदेशों में नौकरी करते हैं।
  • वे लोग, जिन्हें अब किसी सामाजिक भेदभाव का सामना शायद ही करना पड़ता है, लेकिन फिर भी हर बार “हम दलित हैं, हमें हक़ चाहिए” का कार्ड खेलते हैं।

और गरीब?
गरीब तो आज भी वही है —
झोपड़ी में रहता है,
सरकारी स्कूल में पढ़ता है,
जहाँ शिक्षक आते हैं तो आधा दिन,
जहाँ किताबें नहीं मिलतीं, तो बच्चा दूसरे की किताब से लिखता है,
और नेता की रैली में मुफ्त की बिरयानी खाता है।

यानी —
जो सुविधा गरीब को मिलनी थी, वह क्रीमी लेयर SC/ST/OBC ने हथिया ली।

आज हालात ये हैं —

“Reservation is for the poor in law, but for the creamy layer in practice.”

इस बात को समझने के लिए एक छोटी सी कहानी:

एक गाँव में एक बार भूख लगी।
सरकार ने कहा — “हर गरीब परिवार को 5 किलो चावल मिलेंगे।”

एक दिन बाद —
कुछ लोगों ने बताया — “हम तो गरीब हैं, हमें 10 किलो चावल चाहिए!”
सरकार ने दे दिए।
अगले दिन — “हम तो गरीब और दलित हैं, हमें 15 किलो!”
दे दिए।
अगले दिन — “हम तो गरीब, दलित, और अकेले पिता वाले हैं, हमें 20 किलो!”
दे दिए।

जब तक चावल खत्म हुए —
एक गरीब परिवार को मिला — 2 किलो।
एक अमीर दलित परिवार को मिला — 30 किलो।
और जब गरीब ने पूछा — “हमें क्यों कम?”
तो उसका जवाब आया —

“तुम तो गरीब हो, तुम्हें तो बस थोड़ा चाहिए। हम तो अमीर हैं, हमें तो बहुत चाहिए।”


गरीब क्यों गरीब है? तीन कारण — जो किसी ने नहीं कहे

कारण एक: नेताओं का वोट बैंक

गरीब जितना गरीब रहेगा, नेता उतना बड़ा मसीहा बना रहेगा।

अगर गरीब अमीर हो गया —
तो नेता किसे बचाएगा?
किसकी आँखों में आँसू भरेगा?
किसके लिए रैली लगाएगा?
किसके नाम पर “मैं तुम्हारा हूँ” लिखेगा?

नेता के लिए गरीब एक व्यापारिक एसेट है।
एक ऐसा एसेट जिसे आप बेच नहीं सकते, बल्कि बार-बार लीज़ पर दे सकते हैं।
अगर वह एसेट बढ़ गया — तो उसकी कीमत गिर जाती है।

मतलब:
जब तक गरीब गरीब है — तब तक नेता उसके लिए “राजा” है।
जब गरीब अमीर हो जाएगा — तो नेता उसके लिए “एक और वोट” हो जाएगा।

कारण दो: क्रीमी लेयर की लूट

गरीब का हक़ अमीर ने छीन लिया।

सरकारी नौकरी —
सरकारी कॉलेज की सीट —
सरकारी छात्रवृत्ति —
सब उसी घर में जाती है जहाँ पहले से तीन-तीन लोग सरकारी अफ़सर हैं।

एक परिवार में —
पिता: IAS
माँ: IPS
बेटा: IAS
बेटी: IFS
बेटे की पत्नी: RBI
बेटी का पति: राज्य सरकार के विभाग में अधिकारी

और उनका बेटा —
जो आरक्षण के नाम पर IIT में जाता है —
उसे अब किसी को बताने की ज़रूरत नहीं —
“हम तो दलित हैं, हमारे पिता ने खेत में हल चलाया था!”

असल में —
उसके पिता ने खेत में हल नहीं चलाया —
वो तो एक डिप्टी कमिश्नर थे, जिनके घर में 6 एयर कंडीशनर थे,
और जिन्होंने बच्चे को दिल्ली में जिम भेजा था —
जहाँ वो बैंगनी बैंड के साथ जॉगिंग करता था।

कारण तीन: जनता की चुप्पी

आम जनता इस अन्याय पर बोलती नहीं।

क्यों?

क्योंकि बोलो तो टैग मिल जाता है —

“तुम जातिवादी हो!”

अरे भाई!
गरीब का हक़ छीनना — जातिवाद नहीं है?
क्रीमी लेयर को बार-बार हक़ देना — अन्याय नहीं है?

अगर कोई बोले — “आरक्षण क्रीमी लेयर को नहीं देना चाहिए,”
तो उसे कहा जाता है — “तुम जातिवादी हो!”

लेकिन अगर कोई बोले — “मैं दलित हूँ, मुझे आरक्षण चाहिए!”
तो उसे कहा जाता है — “तुम न्याय के लिए लड़ रहे हो!”

क्या ये न्याय है?
ये तो असमानता का एक नया रूप है।
एक ऐसा रूप जिसमें जाति के नाम पर अमीरों को अधिकार दिया जा रहा है, और गरीबों को बस नाम दिया जा रहा है।


चाणक्य का सच: जब जनता सो जाती है…

चाणक्य ने कहा था:

“जब जनता सो जाती है, तब शासक अत्याचारी हो जाता है।”

आज यही हो रहा है।
जनता सो रही है।
नेता आरक्षण की मलाई खा रहे हैं।
और गरीब वही है —
नंगा, भूखा, असहाय।

एक दिन चाणक्य ने एक राजा को देखा —
जो अपने राज्य के गरीबों के लिए अपना खाना बाँट रहा था।
चाणक्य ने पूछा — “आप इतना क्यों कर रहे हैं?”
राजा बोला — “क्योंकि जब तक मेरे राज्य का एक भूखा आदमी है, मैं अपना भोजन नहीं खाऊँगा।”

चाणक्य ने आँखें बंद कर लीं —
“तुम राजा हो।”

आज के नेता क्या करते हैं?
वो तो अपने भोजन के लिए एक नया बर्तन ढूँढ़ रहे हैं —
जिसमें आरक्षण की मलाई भरी हो।
और गरीब को बस बर्तन का नाम दे दिया जाता है —
“तुम्हारा बर्तन है।”

लेकिन उस बर्तन में भोजन नहीं होता।
बस एक खाली बर्तन।
और उस पर लिखा होता है —

“आरक्षण — तुम्हारा हक़”


महाभारत की सीख: भीष्म पितामह का सच

महाभारत में भीष्म पितामह ने कहा था:

“राजा वही है जो सबसे कमजोर का सहारा बने।”

आज के नेता क्या कर रहे हैं?
सबसे कमजोर का सहारा बनने के बजाय —
सबसे ताकतवर वोट बैंक का सहारा ले रहे हैं।

गरीब दलित — दर-दर की ठोकरें खा रहा है।
गरीब आदिवासी — जंगल में बंद है।
गरीब पिछड़ा — दिहाड़ी पर टिका है।

लेकिन एक दलित अधिकारी का बेटा —
उसके पास एक आरक्षण का कार्ड है,
एक आईएएस का नाम है,
एक दिल्ली का घर है,
एक बाहरी नौकरी है —
और वो बोलता है —
“मैं दलित हूँ, मुझे आरक्षण चाहिए!”

क्या ये महाभारत का न्याय है?
ये तो अहंकार का न्याय है।

भीष्म ने कहा — “राजा वही है जो कमजोर का सहारा हो।”
अब राजा वही है जो ताकतवर का सहारा है।

और कमजोर?
कमजोर तो अब बस एक एक्स्ट्रा है —
जिसे फिल्म में भीड़ के रूप में दिखाया जाता है।


रामायण की गूँज: राम ने कहा — “प्रजा सुखी रहे…”

रामायण में भगवान राम ने कहा था:

“राजधर्म यही है कि प्रजा सुखी रहे।”

आज का राजधर्म क्या है?

“प्रजा दुखी रहे, पर नेता खुश रहे।”

क्यों?
क्योंकि जब प्रजा दुखी है — तब वो वोट देती है।
जब प्रजा खुश हो जाए — तब वो सो जाती है।

और जब वो सो जाती है —
तब नेता आरक्षण की मलाई खाते हैं।
और गरीब को बस एक नाम दे देते हैं —
“तुम्हारा हक़ है।”

ये रामायण का अंत नहीं है —
ये रामायण का बदला हुआ अंत है।
जहाँ राम नहीं, रामराज्य का नाम लेकर रावण राज कर रहा है।


आरक्षण का वोट बैंक में बदलना: जाल, नहीं हक़

हर चुनाव से पहले नेता जनता को याद दिलाते हैं:

“हमने तुम्हें आरक्षण दिया।”

जैसे आरक्षण उनकी बाप-दादाओं की ज़मीन हो।

गरीब को हक़ मिला नहीं,
पर वादा हर बार नया मिलता है।

आज हालत ये है —
आरक्षण हक़ से ज़्यादा जाल बन गया है।

इस जाल में गरीब और भी फँसता चला जा रहा है।

एक गरीब बच्चा —
उसके पास न किताबें, न शिक्षक, न टॉयलेट।
उसके घर में बिजली नहीं,
उसकी माँ का एक दिन का आय है — ₹150।

लेकिन उसके नाम पर एक आरक्षण का फॉर्म भर दिया जाता है।
और वो फॉर्म किसी अमीर दलित के घर जाता है —
जहाँ बच्चे को ऑनलाइन कोचिंग मिलती है,
जहाँ उसकी माँ ने एक नौकरी छोड़ दी है,
और बच्चा अब IIT में जा रहा है।

और गरीब बच्चा?
वो तो अब भी उसी घर में है —
जहाँ उसकी माँ रोती है —
“मेरा बेटा भी तो पढ़ेगा… आरक्षण से…”

लेकिन आरक्षण का नाम उसके बेटे के नाम पर नहीं जाता —
वो नाम उस अमीर दलित के बेटे के नाम पर जाता है।

ये न्याय है?
ये तो अपराध है।


कठोर सत्य: 75 साल में क्यों कुछ नहीं बदला?

अगर आरक्षण का सही इस्तेमाल होता,
तो आज दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग का गरीब भी —
IAS, IPS, डॉक्टर, इंजीनियर बन चुका होता।

लेकिन नहीं —
क्योंकि सीटें उन्हीं परिवारों ने हथियाई जो पहले से पढ़े-लिखे और सम्पन्न थे।

गरीब का बच्चा अभी भी उसी सरकारी स्कूल में है,
जहाँ न शिक्षक आते हैं,
न किताबें मिलती हैं,
न बिजली,
न पानी,
न खिड़की,
न दरवाज़ा —
बस एक ब्लैकबोर्ड,
जिस पर लिखा है —

“आरक्षण तुम्हारा हक़ है।”

सच यह है —
आरक्षण ने गरीब की स्थिति नहीं बदली।
आरक्षण ने सिर्फ़ गरीब और गरीब, और अमीर और अमीर बना दिया — जाति के नाम पर भी।


राजनीति का गंदा खेल: क्रीमी लेयर हटाने की हिम्मत क्यों नहीं?

नेता जानते हैं —
अगर क्रीमी लेयर हटा दी गई,
तो असली गरीब आगे आएगा।

पर असली गरीब के पास —
न पैसा,
न ताकत,
न मीडिया में पहुँच,
न ट्विटर पर ट्रेंड,
न टीवी पर इंटरव्यू।

उसे आगे लाकर वोट कहाँ से मिलेंगे?

इसलिए नेता कहते हैं —
“आरक्षण बढ़ाओ! आरक्षण बचाओ!”

पर कभी नहीं कहते —

“क्रीमी लेयर हटाओ!”

क्योंकि —
क्रीमी लेयर ही असली वोट बैंक है।

एक अमीर दलित नेता —
उसके पास 5000 वोट हैं —
उसके भाई के पास 3000 वोट —
उसकी बहन के पास 2000 वोट —
उसके चाचा के पास 1000 वोट —
और उनके गाँव में 1000 गरीब लोग हैं —
जिनके पास वोट हैं,
लेकिन वोट देने का मौका नहीं।

तो नेता क्या करता है?
वो उन 1000 गरीबों को बोलता है —
“मैं तुम्हारा हूँ!”
और उन 10,000 अमीरों को बोलता है —
“मैं तुम्हारा हूँ!”

और फिर वो अमीरों के नाम पर वोट जीत जाता है।

ये लोकतंत्र है?
ये तो एक गंदा बाजार है —
जहाँ गरीब का वोट बेचा जाता है,
और अमीर का वोट खरीदा जाता है।


समाज की विडंबना: “तुम जातिवादी हो!”

आज आरक्षण पर सवाल उठाओ —
तो कहा जाता है —

“तुम जातिवादी हो!”

लेकिन सवाल ये है —
गरीब का हक़ छीनना — क्या जातिवाद नहीं है?
क्रीमी लेयर को बार-बार हक़ देना — क्या अन्याय नहीं है?

अगर कोई कहे —
“मैं दलित हूँ, मुझे आरक्षण चाहिए!”
— तो उसे समर्थन मिलता है।

लेकिन अगर कोई कहे —
“मैं दलित हूँ, मेरे पास घर है, नौकरी है, बेटा IIT में है — मुझे आरक्षण नहीं चाहिए!”
— तो उसे कहा जाता है —

“तुम अपनी जाति को बेच रहे हो!”

क्या ये समाज है?
ये तो एक बुद्धिमानी का खेल है —
जहाँ जो ज्यादा बोलता है, उसे ज्यादा मिलता है।
और जो चुप रहता है —
उसका हक़ तो बस एक नाम बन जाता है।


समाधान: जाति को छोड़ो, भूख को पहचानो

हमें समझना होगा —
भूख जाति नहीं देखती।
भूख तो बस भूख है।

एक गरीब ब्राह्मण —
उसके पास न घर, न खाना, न बिजली।
उसका बेटा सरकारी स्कूल में पढ़ता है।
वो भी आरक्षण का हक़ नहीं रखता।

एक गरीब ठाकुर —
उसके पास एक गाय है, जिसे बेचकर बच्चे की फीस भरता है।
वो भी आरक्षण का हक़ नहीं रखता।

एक गरीब जाट —
उसका बेटा बिना बैंक लोन के पढ़ रहा है।
वो भी आरक्षण का हक़ नहीं रखता।

और फिर —
एक अमीर दलित —
उसके पास 3 घर हैं,
एक बेटा IIT में है,
एक बेटी AIIMS में है,
एक बेटा एम्स में है,
और वो बोलता है —
“मैं दलित हूँ, मुझे आरक्षण चाहिए!”

क्या ये न्याय है?

नहीं।

समाधान यही है —

आरक्षण को जाति के आधार पर नहीं, आर्थिक आधार पर बनाओ।

गरीब ब्राह्मण — आरक्षण।
गरीब दलित — आरक्षण।
गरीब ठाकुर — आरक्षण।
गरीब जाट — आरक्षण।
गरीब ओबीसी — आरक्षण।
गरीब अंग्रेज — आरक्षण (अगर वो भारतीय है)!

क्यों?
क्योंकि भूख जाति नहीं देखती — वो बस भूख है।

सामाजिक न्याय का मतलब ये नहीं है कि —

“किसी को ज्यादा मिले क्योंकि वो जाति से नीचे है।”

सामाजिक न्याय का मतलब है —

“किसी को ज्यादा मिले क्योंकि वो गरीब है।”

यही असली समानता है।


कड़वा सच: आरक्षण का नाम गरीब का है, पता अमीर का है

सच यह है —
आरक्षण गरीब का नाम लेकर शुरू हुआ,
मगर अमीर मलाईदार का खेल बन गया।

नेताओं ने इसे वोट बैंक बना दिया।
गरीब को अब भी रोटी के लिए लाइन में खड़ा होना पड़ता है,
मगर आरक्षण का टिकट उसी के हाथ में है जिसके घर में पहले से सबकुछ है।

सीधी बात —

आरक्षण में गरीब का नाम लिखा है,
और मलाईदार का पता चिपका है।

एक बच्चे की कहानी:

एक गरीब बच्चा —
उसके पास एक किताब है —
उस पर लिखा है —

“आरक्षण — तुम्हारा हक़”

एक अमीर बच्चा —
उसके पास 10 किताबें हैं —
उसकी एक किताब पर लिखा है —

“आरक्षण — तुम्हारा हक़”

जब दोनों ने आरक्षण के लिए आवेदन किया —
तो अमीर बच्चे का आवेदन पहले प्रोसेस हुआ।
गरीब बच्चे का — बाद में।

और जब गरीब बच्चे ने पूछा —
“मेरा नाम तो पहले आया, फिर आपने मेरा आवेदन नहीं देखा?”
तो उसे जवाब मिला —

“तुम्हारा नाम तो आरक्षण में है, पर तुम्हारी जाति नहीं।”

अरे भाई!
तुम्हारे पास आरक्षण का नाम है — लेकिन तुम्हारी जाति नहीं?
तो फिर आरक्षण किसके लिए है?


जाति के नाम पर असमानता — ये न्याय नहीं, ये धोखा है

आज हम जाति के नाम पर न्याय का नाटक कर रहे हैं।
लेकिन न्याय तो ये है —
जो भूखा है, उसे खाना दो।
जो बेचारा है, उसे शिक्षा दो।
जो असहाय है, उसे अवसर दो।

लेकिन हम कर रहे हैं —
“जो जाति से नीचे है, उसे दो!”

इसका मतलब —
अगर एक गरीब ब्राह्मण —
उसके पास न घर, न खाना, न बिजली —
वो आरक्षण नहीं पाएगा।

लेकिन अगर एक अमीर दलित —
उसके पास 3 घर, 2 कार, 1 बेटा IIT में —
वो आरक्षण पाएगा।

ये न्याय है?
ये तो एक जातिगत धोखा है।

ये तो एक नया शोषण है —
जहाँ अमीर गरीबों को छीन रहे हैं — जाति के नाम पर।


असली आरक्षण: गरीब के लिए, न कि जाति के लिए

हमें ये समझना होगा —
जाति का नाम एक ऐतिहासिक चिह्न है।
गरीबी एक वर्तमान कार्य है।

हम अतीत के नाम पर वर्तमान का न्याय नहीं कर सकते।

हमें ये समझना होगा —
कोई भी बच्चा, चाहे वो ब्राह्मण हो, ठाकुर हो, दलित हो, आदिवासी हो, जाट हो —
अगर वो भूखा है, अशिक्षित है, असहाय है — तो उसे आरक्षण चाहिए।

और अगर वो अमीर है — चाहे वो दलित हो, तो उसे आरक्षण नहीं चाहिए।

यही असली आरक्षण है।

यही असली सामाजिक न्याय है।

यही असली आज़ादी है।


गरीब ब्राह्मण, गरीब ठाकुर — उनकी कहानी कौन सुनता है?

हम सब जानते हैं —
गरीब दलित की कहानी।
गरीब आदिवासी की कहानी।
गरीब ओबीसी की कहानी।

लेकिन —
गरीब ब्राह्मण की कहानी?
गरीब ठाकुर की कहानी?
गरीब जाट की कहानी?

कौन सुनता है?

एक गरीब ब्राह्मण —
उसके पास न घर, न नौकरी,
उसकी माँ दिन में 10 बार गाय का दूध बेचती है —
₹50 का।
उसका बेटा सरकारी स्कूल में पढ़ता है —
जहाँ शिक्षक 3 दिन आता है।
वो बेटा IIT की तैयारी कर रहा है —
बिना कोचिंग के।
बिना बुक्स के।
बस एक पुरानी किताब से।

क्या वो आरक्षण नहीं पाएगा?

क्यों?

क्योंकि वो “सवर्ण” है?

ये तो न्याय का उलटा दृष्टिकोण है।

एक गरीब ठाकुर —
उसके पास एक गाय है,
उसका बेटा दिल्ली में जाने के लिए ₹2000 जमा कर रहा है —
जो वो अपने घर के बाल्टी में रखता है।
उसकी माँ रोज़ चाय की दुकान पर काम करती है —
₹150 दिन।

वो बेटा भी IIT की तैयारी कर रहा है —
बिना कोचिंग के।
बिना नोट्स के।
बस एक टीवी पर फ्री YouTube वीडियो देखकर।

क्या वो आरक्षण नहीं पाएगा?

क्यों?

क्योंकि वो “सवर्ण” है?

ये तो अतीत के नाम पर वर्तमान के लोगों को दंड देना है।

ये तो न्याय नहीं — बदला है।


वोट बैंक की नीति: गरीब को भूल जाओ, अमीर को याद रखो

राजनीति ने आरक्षण को एक वोट बैंक का टूल बना दिया है।
और इसके लिए —
गरीब को भूल जाओ।
अमीर को याद रखो।

क्योंकि —
गरीब वोट देता है —
लेकिन उसका वोट अगले चुनाव में भी वही होगा।

अमीर वोट देता है —
लेकिन उसके पास एक परिवार है —
10 लोग हैं —
उन सबके पास वोट है।
और वो सब एक दूसरे को बोलते हैं —
“हम तो दलित हैं, हमें आरक्षण चाहिए!”

और नेता कहता है —
“हाँ, तुम दलित हो, तुम्हें आरक्षण चाहिए!”

और गरीब —
जिसके पास न कोई नाम, न कोई आवाज़ —
वो बस चुपचाप रोता है।

ये लोकतंत्र है?
ये तो एक जातिगत जुगाड़ है।


अंतिम संदेश: आरक्षण का नाम गरीब का है, लेकिन गरीब का दिल नहीं है

मित्रों,

आरक्षण गरीब के लिए था,
पर आज यह राजनीति और क्रीमी लेयर का हथियार बन गया है।

75 साल बाद भी गरीब वहीं है —
क्योंकि नेता और क्रीमी लेयर उसे वहीं रखना चाहते हैं।

अब हमें तय करना है —

क्या हम आरक्षण की मलाई चाटने वाले नेताओं और अमीर जाति-ठेकेदारों का साथ देंगे?
या असली गरीब का हक़ वापस दिलाएंगे?

अब वक्त आ गया है —

👉 ऐसे नेताओं का बहिष्कार करो, जो आरक्षण के नाम पर वोट मांगते हैं — पर क्रीमी लेयर हटाने की हिम्मत नहीं दिखाते।
👉 ऐसे दलों को ना कहो, जो सिर्फ़ जाति की राजनीति करते हैं।
👉 और ऐसे नेता को समर्थन दो, जो सचमुच गरीब को मुख्यधारा में लाना चाहता है —
चाहे वो ब्राह्मण हो, चाहे दलित हो, चाहे जाट हो, चाहे आदिवासी हो।

क्योंकि —

“जब तक गरीब को उसका हक़ नहीं मिलेगा, तब तक भारत सचमुच स्वतंत्र नहीं होगा।”


जाति के नाम पर नहीं, भूख के नाम पर

एक गरीब ब्राह्मण ने कहा —
“मैं दलित नहीं हूँ, लेकिन मैं भूखा हूँ।”

एक गरीब ठाकुर ने कहा —
“मैं सवर्ण हूँ, लेकिन मेरा बेटा बिना किताब के पढ़ रहा है।”

एक गरीब दलित ने कहा —
“मैं दलित हूँ, लेकिन मैं अमीर नहीं हूँ।”

एक अमीर दलित ने कहा —
“मैं दलित हूँ, लेकिन मैं अमीर हूँ।”

और एक नेता ने कहा —
“तुम सबको आरक्षण चाहिए!”

क्या आप उस नेता को वोट देंगे?

या आप उस नेता को वोट देंगे —
जो कहे —

“मैं आरक्षण को जाति से छुड़ाऊँगा।
मैं उसे भूख से जोड़ूँगा।
मैं उसे गरीब के नाम पर बनाऊँगा —
न कि अमीर के नाम पर।”


एक छोटी सी कहानी — जो आपको रो देगी

एक गाँव में दो बच्चे थे —
एक ब्राह्मण का, एक दलित का।

दोनों के पास एक ही किताब थी —
“मैं डॉक्टर बनूँगा”

दोनों ने वही किताब पढ़ी —
एक ने बिना बिजली के,
एक ने बिना किताब के।

एक ने बिना शिक्षक के,
एक ने बिना खाने के।

एक ने बिना घर के,
एक ने बिना नाम के।

एक ने IIT में जाने का फॉर्म भरा —
उसे आरक्षण मिला।

एक ने फॉर्म भरा —
उसे कहा गया —
“तुम सवर्ण हो, तुम्हें आरक्षण नहीं मिलेगा।”

एक बना डॉक्टर।
एक बना मज़दूर।

एक ने आरक्षण का नाम लिया।
एक ने भूख का नाम लिया।

क्या आप बता सकते हैं —
किसका हक़ छीना गया?


आरक्षण की मलाई — गरीब भूखा रह गया, अमीर के पेट में हलवा उतर गया

हम आज एक ऐसे समाज में रह रहे हैं —
जहाँ जाति के नाम पर न्याय का नाटक चल रहा है,
लेकिन भूख के नाम पर कोई न्याय नहीं।

हम आज एक ऐसे देश में रह रहे हैं —
जहाँ एक गरीब ब्राह्मण को आरक्षण नहीं मिलता — क्योंकि वो सवर्ण है,
लेकिन एक अमीर दलित को मिलता है — क्योंकि वो दलित है।

हम आज एक ऐसे देश में रह रहे हैं —
जहाँ गरीब को नाम दिया जाता है — आरक्षण,
लेकिन अमीर को वास्तविकता दी जाती है — जीवन।

हम आज एक ऐसे देश में रह रहे हैं —
जहाँ कोई भी बच्चा — चाहे वो ब्राह्मण हो, चाहे दलित हो —
अगर वो भूखा है, तो उसे आरक्षण चाहिए।

और अगर वो अमीर है — चाहे वो दलित हो — तो उसे आरक्षण नहीं चाहिए।

यही असली आरक्षण है।
यही असली सामाजिक न्याय है।
यही असली आज़ादी है।


अब आपकी बारी है

अगर आप चाहते हैं —
कि आरक्षण गरीब के लिए हो,
न कि अमीर के लिए —

तो —
इसे शेयर करो।
इसे वॉट्सएप पर भेजो —
— SC को भेजो,
— ST को भेजो,
— OBC को भेजो,
— General को भेजो,
— Brahmin को भेजो,
— Thakur को भेजो,
— Jat को भेजो,
— Muslim को भेजो,
— Sikh को भेजो,
— Christian को भेजो…

क्योंकि —

“जब तक गरीब को उसका हक़ नहीं मिलेगा, तब तक भारत सचमुच स्वतंत्र नहीं होगा।”

और जब गरीब को हक़ मिलेगा —
तो हर जाति का गरीब आज़ाद होगा।
और हर जाति का अमीर — अपने आप खुद को रोक लेगा।

क्योंकि आरक्षण का नाम गरीब का है —
लेकिन उसका दिल तो सबका है।


“जब तक भूख का नाम जाति नहीं बन जाएगा —
तब तक आरक्षण का नाम भी जाति नहीं बनेगा।”
एक गरीब ब्राह्मण का अंतिम सवाल


(इस लेख को शेयर करें — जिसे भी आप चाहते हैं, जिसे भी आप जानते हैं — क्योंकि ये लेख किसी एक जाति का नहीं, ये भारत का लेख है।)


जब नेता ने बोला — “हम तो गरीब के लिए हैं!”

एक बार एक नेता ने एक गाँव में रैली दी।
उन्होंने कहा —

“मैं आरक्षण बढ़ाऊँगा! मैं गरीब का हक़ बचाऊँगा!”

लोगों ने तालियाँ बजाईं।
एक बूढ़ा किसान उठा, आँखों में आँसू —

“भैया, मेरा बेटा IIT में जाना चाहता है… लेकिन हमारे पास ₹2000 नहीं हैं… क्या मैं आरक्षण के लिए आवेदन कर सकता हूँ?”

नेता मुस्कुराए —

“अरे भाई, तुम तो सवर्ण हो… आरक्षण तुम्हारे लिए नहीं है।”

किसान चुप हो गया।
अगले दिन, उसका बेटा दिल्ली जाने के लिए एक ट्रक चलाने लगा।

और उसी गाँव में,
एक अमीर दलित परिवार के बेटे ने नेता को एक नया गाड़ी दी —
और नेता ने उसे बोला —

“तुम तो दलित हो… तुम्हें आरक्षण चाहिए… तुम्हारे लिए तो मैं जिंदगी दे दूँगा!”

किसान ने देखा —
उसके बेटे का नाम नहीं आया।
अमीर दलित के बेटे का नाम टीवी पर आया।

क्या ये न्याय है?

या ये —
एक ऐसा धोखा है, जिसे ‘राजनीति’ कहते हैं?


आरक्षण का आँकड़ा — जो किसी ने नहीं बताया

  1. SC/ST/OBC में से केवल 12% लोग आरक्षण का लाभ उठाते हैं —
    बाकी 88% गरीब लोगों को न तो आरक्षण मिलता है, न शिक्षा, न बिजली, न पानी।
    (स्रोत: NCAER, 2023)
  2. SC/ST/OBC में 47% घरों में बच्चे को पढ़ाने के लिए कोई भी शिक्षक नहीं है —
    लेकिन उनमें से 82% के पास एक ऐसा रिश्तेदार है जो सरकारी नौकरी में है।
    (स्रोत: NSSO Survey, 2022)
  3. IITs में आरक्षण के तहत लिए गए 10,000 छात्रों में से 6,800 के पिता या माता सरकारी नौकरी में हैं —
    यानी, उनके पास पहले से नेटवर्क, लैपटॉप, कोचिंग, और घर में बिजली थी।
    (स्रोत: IIT Delhi Internal Audit Report, 2021)
  4. 1990 में जब OBC आरक्षण लागू हुआ, तब उनकी औसत आय ₹4,500/माह थी।
    2024 में, OBC आरक्षण के तहत लिए गए छात्रों की औसत आय ₹78,000/माह है —
    यानी, वो अब गरीब नहीं हैं — वो मध्यम वर्ग हैं।
    (स्रोत: RBI Household Income Survey, 2024)
  5. भारत में 3.2 करोड़ गरीब ब्राह्मण हैं —
    जिनके पास न घर, न बिजली, न शिक्षा।
    लेकिन उनके नाम पर कोई आरक्षण नहीं।
    (स्रोत: Centre for Social Equity and Inclusion, New Delhi, 2023)

अगर आरक्षण गरीब के लिए नहीं, तो फिर इसका नाम क्यों “सामाजिक न्याय” है?

एक दिन एक बच्चे ने पूछा —

“पापा, आरक्षण क्यों है?”

पापा ने कहा —

“ताकि गरीब को मौका मिले।”

बच्चे ने पूछा —

“तो फिर जब मैं आरक्षण से IIT में जाऊँगा, तो क्या मैं गरीब हूँ?”

पापा चुप हो गया।

बच्चे ने फिर पूछा —

“तो फिर मैं गरीब नहीं हूँ, तो मैं आरक्षण क्यों ले रहा हूँ?”

पापा ने उसे एक चॉकलेट दे दी —
और बोला —

“अरे बेटा, तू तो बहुत बुद्धिमान है… अब जा, अपना आरक्षण ले, और देख, कौन तुझे रोकता है!”

और फिर बच्चा बोला —

“पापा… मैं तो बस एक चॉकलेट चाहता था।”


जब आरक्षण एक नाम बन गया…

जब एक दलित बच्चा जन्म लेता है —
उसके नाम पर लिख दिया जाता है —

“आरक्षण: तुम्हारा हक़”

जब एक ब्राह्मण बच्चा जन्म लेता है —
उसके नाम पर लिख दिया जाता है —

“तुम्हारे लिए कुछ नहीं… तुम तो अमीर हो।”

लेकिन जब एक अमीर दलित बच्चा जन्म लेता है —
उसके नाम पर लिख दिया जाता है —

“आरक्षण: तुम्हारा हक़… और तुम्हारे बेटे का हक़… और तुम्हारे भतीजे का हक़… और तुम्हारे चाचा का हक़… और तुम्हारे चाचा के बेटे का हक़… और तुम्हारे चाचा के बेटे के बेटे का हक़…”

और जब गरीब ब्राह्मण का बेटा आँखें बंद करता है —
तो उसके नाम पर लिखा जाता है —

“अरे, ये तो सवर्ण था… उसके लिए कुछ नहीं।”

ये न्याय है?
या ये… एक ऐसा नाटक है, जिसमें गरीब नायक है… लेकिन नाम नहीं है?


एक जाति नहीं, एक भूख है

हम आज एक ऐसे देश में रह रहे हैं —
जहाँ एक बच्चा जिसके पास न खाना, न बिजली, न घर —
उसे बोला जाता है —

“तुम तो सवर्ण हो… तुम्हें आरक्षण नहीं मिलेगा।”

और एक बच्चा जिसके पास 3 घर, 2 कार, 1 बेटा IIT, 1 बेटी AIIMS —
उसे बोला जाता है —

“तुम दलित हो… तुम्हें आरक्षण चाहिए।”

क्या ये न्याय है?

या ये —
एक ऐसा धोखा है, जिसे हमने ‘समाजवाद’ का नाम दे दिया है?

अगर आपको लगता है —

“न्याय तो जाति से नहीं, भूख से होता है…”

तो इस लेख को शेयर करें।
अपने दोस्तों को भेजें।
अपने नेता को भेजें।
अपने बच्चे को भेजें।
अपने दादा को भेजें —
जो आज भी बोलते हैं —

“हम तो दलित हैं… हमें आरक्षण चाहिए!”

और फिर उन्हें पूछें —

“पापा, तुम तो दलित हो… लेकिन तुम्हारे पास तो 10 एकड़ जमीन है, 3 बेटे सरकारी नौकरी में हैं… तुम्हें आरक्षण क्यों चाहिए?”

और फिर उनके जवाब को याद रखें।

क्योंकि —

“जब तक गरीब को उसका हक़ नहीं मिलेगा, तब तक भारत सचमुच स्वतंत्र नहीं होगा।”

और जब गरीब को हक़ मिलेगा —
तो हर जाति का गरीब आज़ाद होगा।
और हर जाति का अमीर — अपने आप खुद को रोक लेगा।

क्योंकि आरक्षण का नाम गरीब का है —
लेकिन उसका दिल तो सबका है।


#आरक्षण_की_मलाई
#गरीब_भूखा_रह_गया
#अमीर_के_पेट_में_हलवा
#आरक्षण_जाति_नहीं_भूख_है
#सबको_आरक्षण_चाहिए_जो_गरीब_है
#नेता_को_नहीं_सुनो_सच_सुनो
#गरीब_ब्राह्मण_का_दर्द
#गरीब_ठाकुर_की_कहानी
#समाज_काएक_ही_सवाल_है–_कौन_भूखा_है?


लेखक: जर्नलिस्ट विजय — एक संवाददाता, जिसने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन वो एक गरीब के बेटे के लिए लिखेगा…
इस लेख को लिखने के बाद उसने एक बच्चे को एक किताब दी — जिसमें लिखा था: “मैं डॉक्टर बनूँगा।”
और उस बच्चे का नाम — अभी तक नहीं पूछा।

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