Writer: Journalist Vijay
भारत की राजनीति की सबसे लंबी चलाई गई स्क्रिप्ट कौन-सी है? न रामराज्य, न गांधी का स्वराज्य, न नेहरू का समाजवाद, न अटल का विकास।
सबसे लंबी फिल्म है – आरक्षण की राजनीति।
यह फिल्म हर चुनाव में रिलीज होती है, हर बार नए डायलॉग, लेकिन हीरो-हीरोइन वही रहते हैं – नेता और वोट बैंक।
गरीब? अरे, गरीब तो इस फिल्म में सिर्फ़ एक्स्ट्रा है। भीड़ का हिस्सा। उसकी डायलॉग डबिंग भी कोई और कर देता है।
आरक्षण का सपना और हकीकत
आज़ादी के बाद जब संविधान बना, तब डॉ. भीमराव अंबेडकर और अन्य नेताओं ने आरक्षण की व्यवस्था की।
उद्देश्य साफ़ था—सदियों से वंचित और शोषित समाज को बराबरी का अवसर मिले।
जो लोग पढ़ाई-लिखाई से, रोज़गार से, अवसर से वंचित रहे, उन्हें आगे बढ़ाने का रास्ता मिले।
लेकिन आज 75 साल बाद हालत क्या है?
गरीब वहीँ का वहीँ है।
झोपड़ी वही है, मज़दूरी वही है, टूटा ब्लैकबोर्ड वही है।
हाँ, फ़र्क बस इतना है कि उसके नाम पर अब अमीर मलाईदार तबका मोटा हो चुका है।
यह वही कहानी है—
“गाँव का कुत्ता भूखा है, और शहर के कुत्ते को मटन की हड्डियाँ मिल रही हैं।”
मलाईदार तबके का खेल
आरक्षण का सबसे ज़्यादा लाभ किसे मिल रहा है?
क्या खेत में हल चलाने वाले को?
क्या मज़दूरी करने वाले को?
क्या चाय की दुकान पर काम करने वाले लड़के को?
नहीं!
आरक्षण सबसे पहले पहुँचता है उस मलाईदार तबके तक—
जिसके पास गाड़ी है,
बच्चे को कोचिंग भेजने के पैसे हैं,
और बाप के पास अफ़सरों से मिलाने का जुगाड़ है।
गरीब को आरक्षण का नाम मिलता है, अमीर को उसका काम।
SC/ST की कहानी
आरक्षण का असली मक़सद SC/ST समुदायों को ऊपर उठाना था।
लेकिन क्या हुआ?
गरीब दलित आज भी मज़दूर है, ईंट-भट्ठे पर काम करता है, जंगल में पत्ते बेचता है।
मगर मलाईदार दलित का बेटा हर बार नौकरी पाता है।
क्योंकि उसके बाप-दादा पहले ही आरक्षण का लाभ उठाकर अधिकारी बन चुके हैं।
अब वही सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता जा रहा है।
यानी गरीब दलित का बेटा मजदूर रहेगा,
और अमीर दलित का बेटा हर बार सरकारी नौकरी करेगा।
मुहावरा याद आता है—
“जाके पाँव ना फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई।”
जिसने भूख नहीं देखी, गरीबी नहीं देखी, वह गरीब के दर्द को कैसे समझेगा?
OBC की कहानी
OBC में भी वही खेल हो रहा है।
गरीब यादव, कुर्मी, लोहार का बेटा खेत में हल चला रहा है।
वह सोचता है कि आरक्षण से उसकी ज़िंदगी बदलेगी।
लेकिन बदलता है किसका जीवन?
उसका, जिसके पास पहले से शहर में मकान है।
जिसका बेटा दिल्ली-कोटा में कोचिंग कर रहा है।
गरीब का बेटा गाँव में मास्टर जी की डाँट खा रहा है,
अमीर का बेटा आरक्षण की सीढ़ी चढ़कर IAS बन रहा है।
यह वही कहानी है—
“ऊँट के मुँह में जीरा।”
गरीब को आरक्षण से इतना ही मिलता है जितना ऊँट को एक जीरे से तृप्ति मिले।
क्यों नहीं बदली हालत?
75 साल बाद भी SC/ST/OBC के गरीब वहीं क्यों हैं?
क्योंकि राजनीति को गरीब चाहिए ही नहीं।
नेताओं को चाहिए सिर्फ़ वोट बैंक।
गरीब अगर सचमुच पढ़-लिखकर ऊपर उठ गया तो वोट कौन देगा?
गरीब अगर मज़बूत हो गया तो नारे कौन लगाएगा?
इसलिए नेताओं की राजनीति है—गरीब को ग़रीब ही बनाए रखो, और अमीर मलाईदार तबके को बार-बार मलाई खिलाओ।
मुहावरा कहता है—
“घर का जोगी जोगड़ा, आन गाँव का सिद्ध।”
मतलब अपने गाँव का साधु कभी महान नहीं माना जाता।
नेताओं के लिए गरीब वही “जोगी” है—जिसे हमेशा नीचे रखना है, ताकि चुनाव में उसकी भीख माँगी जा सके।
वोट बैंक की राजनीति
राजनीति ने आरक्षण को सामाजिक न्याय का औज़ार नहीं,
बल्कि चुनावी जुगाड़ बना दिया।
हर चुनाव में नेता कहते हैं—“हम आरक्षण बढ़ाएँगे।”
जनता तालियाँ बजाती है।
गरीब सोचता है—“अब मेरी ज़िंदगी बदलेगी।”
लेकिन असल में बदलता है सिर्फ़ सत्ता का समीकरण।
गरीब वहीं का वहीं है।
उसके हिस्से में सिर्फ़ घोषणाएँ आती हैं,
उसके नाम पर मलाई कोई और खा जाता है।
यानी—
“डूबते को तिनके का सहारा।”
गरीब को आरक्षण का तिनका दिखाया जाता है,
मगर उसकी नाव कभी किनारे नहीं लगती।
क्रीमी लेयर की सच्चाई
आज SC/ST और OBC में क्रीमी लेयर ही असली आरक्षण खा रही है।
गरीब को छोड़कर वही लोग बार-बार इसका लाभ उठा रहे हैं जिनके पास पहले से सब कुछ है।
आरक्षण का मतलब था “वंचितों को अवसर”।
लेकिन आज यह बन गया है “अमीरों को और अवसर”।
कहावत याद आती है—
“साँप के बिल में छछूंदर।”
नेता जनता को ऐसी स्थिति में डाल देते हैं कि न निगल सकते हैं, न उगल सकते हैं।
गरीब के पास ना पढ़ाई का साधन है, ना नौकरी की गारंटी—सिर्फ़ आरक्षण का सपना है।
असली हल क्या है?
आरक्षण ज़रूरी है, लेकिन जाति के आधार पर नहीं।
जरूरी है आर्थिक आधार पर।
क्योंकि भूख जाति देखकर नहीं लगती।
गरीब ब्राह्मण, गरीब दलित, गरीब ओबीसी—
सभी को एक जैसी मदद चाहिए।
लेकिन राजनीति ऐसा नहीं चाहती।
क्योंकि राजनीति के लिए जाति ज़्यादा सुविधाजनक है।
कड़वा सच
सच यह है कि—
आरक्षण गरीब का नाम लेकर शुरू हुआ,
मगर अमीर मलाईदार का खेल बन गया।
नेताओं ने इसे वोट बैंक बना दिया।
गरीब को अब भी रोटी के लिए लाइन में खड़ा होना पड़ता है,
मगर आरक्षण का टिकट उसी के हाथ में है जिसके घर में पहले से सबकुछ है।
सीधी बात—
आरक्षण में गरीब का नाम लिखा है, और मलाईदार का पता चिपका है।
अंतिम बात
आज जरूरत है आरक्षण को सही दिशा देने की।
आरक्षण वहीं तक सीमित होना चाहिए जहां तक सच में गरीबी है।
क्रीमी लेयर को बाहर करना होगा।
वरना 100 साल बाद भी हालत यही रहेगी—
गरीब पत्तल धो रहा होगा,
और अमीर मलाई खा रहा होगा।






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