क्या जातिवाद जैसी गहरी सामाजिक बुराई का इलाज ‘एक मंदिर, एक कुआं, एक श्मशान’ हो सकता है?
क्या वाकई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अब अपने मूल विचार से हटकर एक समावेशी समाज की ओर बढ़ रहा है?
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के अलीगढ़ दौरे ने इन सवालों को हवा दी है।
पांच दिवसीय यात्रा में दिए उनके बयान ने न केवल राजनीतिक हलकों में सरगर्मी बढ़ा दी है, बल्कि जातिगत व्यवस्था को लेकर संघ के बदले नजरिए की भी झलक दी है।
भागवत ने खुलकर कहा कि हिन्दू समाज को एकजुट करने का रास्ता जातिविहीन संरचना से होकर ही जाएगा — जहां हर वर्ग के व्यक्ति को मंदिर, कुएं और श्मशान जैसी बुनियादी धार्मिक-सामाजिक संरचनाओं तक समान पहुंच मिले।
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने अलीगढ़ के पंचन नगरी पार्क और एचबी इंटर कॉलेज में आयोजित शाखाओं को संबोधित करते हुए समाज में ‘समानता’ की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने स्पष्ट किया कि “हमें ऐसा समाज बनाना है जो न केवल सशक्त हो, बल्कि सभी वर्गों को समान सम्मान के साथ साथ लेकर चलने वाला हो।”
उन्होंने कहा कि “हमारे पर्व केवल उत्सव नहीं होते, वे सामाजिक एकता के अवसर हैं।” उन्होंने सभी स्वयंसेवकों से अपील की कि वे अपने त्योहारों में हर वर्ग के लोगों को आमंत्रित करें और एक साथ बैठकर, मिलकर, बराबरी से जिएं — यहीं से समरसता का मार्ग निकलता है।
संघ प्रमुख का यह बयान इसलिए भी अहम है क्योंकि यह न केवल एक विचारधारा से उपजा संदेश है, बल्कि उस भारत के निर्माण की कल्पना करता है जहां जाति के आधार पर भेदभाव खत्म हो।
मोहन भागवत के बयान में प्रयोग हुआ ‘एक मंदिर, एक कुआं, एक श्मशान’ का नारा कोई साधारण शब्द नहीं है — यह प्रतीक है एक ऐसे समाज का, जहां दलितों को अलग कुएं से पानी भरने की मजबूरी न हो, जहां पूजा का अधिकार सबको बराबर मिले, और जहां मरने के बाद भी भेदभाव न हो।
भागवत का यह बयान न केवल एक सामाजिक परिवर्तन का आह्वान है, बल्कि उस सोच की आलोचना भी है जिसने सदियों तक समाज को बांटकर रखा।
यह लाइन सीधे-सीधे डॉ. अंबेडकर के विचारों से टकराती नहीं, बल्कि उस दिशा में एक कदम प्रतीत होती है — जहां बहुसंख्यक समाज यह समझे कि बराबरी सिर्फ संविधान में नहीं, जमीन पर भी दिखनी चाहिए।
इस दौरे के दौरान मोहन भागवत ने ब्रज क्षेत्र के प्रचारकों के साथ कई महत्वपूर्ण संगठनात्मक बैठकों में हिस्सा लिया।
यह बैठकें न केवल आगामी राष्ट्रीय आयोजनों की रणनीति पर केंद्रित थीं, बल्कि यह भी सुनिश्चित कर रही थीं कि RSS की शताब्दी समारोह से पहले उसके सामाजिक सरोकारों की दिशा साफ हो।
विजयादशमी से शुरू होने जा रहे शताब्दी समारोह के लिए यह दौरा एक मजबूत संकेतक है कि संघ अब अपने पारंपरिक ढांचे में परिवर्तन कर ‘सर्वसमावेशी’ छवि गढ़ने में जुटा है।
सवाल यह है कि क्या यह बदलाव स्थायी है या सिर्फ रणनीतिक?
मोहन भागवत ने स्वयंसेवकों से आह्वान किया कि वे समाज के हर वर्ग तक पहुंचें — न केवल संपर्क करें, बल्कि उन्हें अपने घरों में आमंत्रित करें।
उन्होंने कहा, “जब हम अपने घरों के दरवाजे खोलते हैं, तो समाज की दीवारें अपने आप गिरने लगती हैं।”
यह अपील सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं है, बल्कि एक गहन सामाजिक प्रयोग का आह्वान है, जो वर्ग-भेद की जड़ों तक जाकर उसे उखाड़ने की कोशिश है।
हालांकि, इस बयान के बाद प्रतिक्रियाएं भी तीव्र हैं — कुछ इसे ‘बदलती संघ’ की छवि के रूप में देख रहे हैं, तो कुछ इसे सिर्फ भाषण की राजनीति मान रहे हैं।






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