©® वेद प्रकाश द्विवेदी
एक ज़माना हुआ करता था जब मतदाता को खरीदा जाता था वो भी दिन – दोपहर को नहीं रात को बिराने में. अब वक़्त समय हालात सब बदल चुके हैं. किसी को कुछ पता नही कि ऊंट किस करवट बैठेगा. जब तक वोटों की गिनती और जेब में विनती का हिसाब नही हो जाता तब तक ऊंट खडा ही रहेगा.
जहाँ चुनाव के पहले देश का नागरिक आम जन हुआ करता है वहीं चुनाव के समय वो मतदाता हो जाता है. अब जनता ये नही समझ पाती की वो आम जन है की मतदाता. खैर एक सर्वोपरी अधिकार जो हमारे देश में हमें प्राप्त है वो मतदान का अधिकार.
इस भूमिका को विराम देते हुये आते हैं अब असल मुद्दे पर बढ़ते हैं . मुद्दा यह है कि चुनावों में लिफाफों का जोर है हर जगह बस यही सोर है.
२०२३ के दस्तक देते ही घोषणा पर घोषणा चाहे वो सत्ता पर काबिज पार्टी हो या अन्य पार्टिया हो. सबका काम सिर्फ लिफाफा ही है. कोई बंद लिफाफा देना चाहता है कोई खुला लिफाफा देना चाहता है बांकी जिन्हें यह लिफाफा नही मिलता वो गुप्त लिफाफा लेते हैं.
खुला लिफाफा इस समय काफी जोर से चल रहा है. जहाँ पार्टिया अब सीधे खातों पर लिफाफा देना शुरू कर दी हैं. कोई 1000 देना चाहता है कोई 2000 कोई कुछ नि: शुल्क दे रहा कोई कुछ. बस नजर इस पर नहीं जाती की ये लिफाफा फट किसका रहा है. कर्जा ले लेकर लिफाफे पर लिफाफा पकडाए जा रहे हैं.
हम आखिर कब तक ऐसे लिफाफों को ताकते रहेंगे हम शिक्षा, बेरोजगारी, कुपोषण, स्वास्थ्य, भुखमरी, महगाई पर कब सवाल उठाएंगे. जब हमारा आपका लिफाफा ही फट जाएगा. ये लिफाफा नही बवासीर है इस लिफ़ाफ़े को पहले ही फाड़ दीजिये वरना लिफ़ाफ़े के लिए कागज़ टो दूर लिखने के लिए भी कागज़ नसीब न होगा.
और हर सत्ता दल सत्ता पार काबिज होने के लिए ऐसे ही लिफ़ाफ़े हर बार थमाता जाएगा और हम आँख बंद कर लिफाफा पकड़ते चले जायेंगे और एक दिन लिफाफा ही फट जाएगा हमारा. तब हम न किसी काम होंगे न कोई पूछेगा.
बस यहीं है लिफाफा यही है चुनाव का जोर.