भगवान राम की अयोध्या वापसी के उत्साह में मनाए जाने वाले दीपावली के पर्व पर लीलाधर श्रीकृष्ण के भक्त भी गोवर्धन पूजा कर खुशियां मनाते हैं। चित्रकूट में कृष्ण भक्त यदुवंशियों की टोलियां पारंपरिक परिधानों में यह खुशी देवारी नृत्य के रूप में मनाती नजर आती है।
यद्यपि इस बार सूर्य ग्रहण के कारण गोवर्धन पूजा तो प्रभावित रही लेकिन सिर पर मोर पंख बांध कर आए यदुवंशियों ने लट्ठ भांज कर देवारी नृत्य की पुरातन परंपरा का निर्वाह अवश्य किया। परीवा को गोवर्धन पूजा के दिन चित्रकूट की कामदगिरि परिक्रमा के पथ पर कृष्ण भक्त यदुवंशियों ने देवारी नृत्य की पारंपरिक लोक कला का प्रदर्शन किया।
शाम के वक्त पहुंची टोलियों ने नगड़िया की थाप के बीच लट्ठ बाजी का कौशल दिखाया। टोली में शामिल बुजुर्ग और बच्चों ने बारी- बारी से लट्ठ बाजी में करतब दिखाए तो कुछ ने मोरपंख के साथ झूमते हुए भगवान को अपनी आस्था समर्पित की।
भगवान कृष्ण के उपासक यदुवंशी अपनी लोकसंस्कृति के लिए विख्यात है। गांव-गांव में लाठियां भांजते, करतब दिखाते और ढोल की थाप पर नाचते मंगलवार की शाम परिक्रमा पथ पहुंचे यदुवंशियों ने सबका मन मोह लिया। दिवाली के अगले दिन इस नृत्य के आयोजन की बुंदेलखंड के कई जिलों में परंपरा है। इनमें चित्रकूट, बांदा आदि शामिल हैं।
दिवारी नृत्य करने वाले सिर पर मोर पंख बांधे और पीले कपड़े पहने होते हैं और आपस में लाठियां भांजते हुए ढोल-नगाड़े की थाप पर नाचते हैं। दिवारी नृत्य का एक नाम मौनिया नृत्य भी है। यह परंपरा हजारों साल पुरानी है। इस नृत्य का आयोजन गोवर्धन पूजा के दिन होता है। इसे गोवर्धन पर्वत उठाने के बाद भगवान कृष्ण की भक्ति में प्रकृति पूजक परंपरा के तौर पर मनाया जाता है, जिसमें दिवारी गीत शामिल होते हैं।
दिवारी नृत्य करने वालों की टोली 12-12 गांव जाकर 12 साल तक नृत्य करती है। एक टोली जब इसे शुरू करती है, तो मौन साधना कर 12 अलग-अलग गांव में 12 साल तक भ्रमण करती है। उसके बाद इसका विसर्जन करा दिया जाता है और फिर अगली टोली इस व्रत को उठाती है।